राजा और तीन गुड्डे की कहानी
तीन गुड्डे
एक समय की बात है दक्षिण भारतीय राज्य विजयगढ़ में राजाराम नाम के महाप्रतापी राजा थे जिनकी सैन्य-शक्ति बहुत अच्छी थी। दिल्ली के सुल्तान ने कई बार पर्वतों से घिरे इस सुरम्य और सुंदर राज्य पर विजय प्राप्त करने की कोशिश की, परंतु असफल रहे।
एक दिन राजा के दरबार में द्वारपाल ने आकर सूचना दी कि दिल्ली के सुल्तान का दूत एक संदेश लेकर आया है। राजा ने द्वारपाल को आदेश दिया कि वह दूत को ससम्मान दरबार में हाजिर करे।
सुल्तान के दूत ने राजदरबार में आकर महाराज के सामने सिर नंवाया और उन्हें चमकीले कपड़े में लिपटा एक छोटा-सा पुलिंदा दिया। महाराज ने कौतूहलवश उस पुलिंदे को खोलकर देखा। उसमें एक ही रंग रूप के तीन रंग-विरंगे गुड्डे थे और साथ ही एक पत्र था। पत्र में लिखा था, ‘‘सुना है कि बुद्धि में विजयगढ़ राज्य की तुलना नहीं की जा सकती। इन तीन गुड्डों के गुण-अवगुण बता दें तो मुझे बेहद प्रसन्नता होगी।’’
महाराज ने पत्र पढ़कर बिना कुछ कहे इसे मंत्री को सौंप दिया। मंत्री ने पत्र पढ़कर एक लम्बी सांस ली और राजा के कान में फुसफुसाते हुए कुछ कहा। महाराज ने मंत्री की ओर देखते हुए गंभीरतापूर्वक अपना सिर हिलाया। फिर दूत से कहा, ‘‘ठीक है। आप एक सप्ताह तक राज्य के अतिथिगृह में विश्राम करें। उसके बाद इस पत्र का उत्तर पाकर दिल्ली लौटें।’’
सभा भंग होने के बाद महाराज राजाराम ने मंत्री से कहा, ‘‘मंत्री जी, आपकी बुद्धि का लोहा सारा राज्य मानता है। इन गुड्डों को अपने साथ घर ले जाएं और सात दिनों में इनके रहस्य का समाधान ढूंढ निकालें। विजयगढ़ के सम्मान की रक्षा अब आपके हाथ में ही है।’’
निस्संदेह मंत्री बुद्धिमान व्यक्ति था परंतु एक जैसे दिखते इन गुड्डों ने उन्हें भी चिंता में डाल दिया। फिर भी उन्होंने कहा, ‘‘महाराज सात दिन नहीं, मुझे सिर्फ तीन दिन का समय दें। आशा है इन तीन दिनों में आपको रहस्य बता सकूं।''
संध्या का समय था। पहाड़ों से ठंडी ठंडी हवा बहकर आ रही थी। मंत्री अपने घर के बगीचे में बैठे हुए थे कि उनकी पत्नी उनके पास आई। उसने देखा कि मंत्री का चेहरा गंभीर और चिंतित है। उसने साग्रह पूछा, ‘‘राज्य पर कोई विपत्ति आन पड़ी है क्या?''
इस पर मंत्री ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘नहीं भागवान, ऐसी कोई बात नहीं है। फिर उन्होंने अपनी पत्नी को गुड्डों से जुड़ी समस्या बताई। मंत्री की पत्नी ने कहा कि गुड्डों की अच्छी तरह जांच कर लें।
सुनकर मंत्री बहुत प्रसन्न हुए। दिन के सभी कार्यों से मुक्त होने के बाद रात में उन्होंने एक तख्त पर उन तीनों गुड्डों को रखा। उसके बाद बहुत देर तक उन्हें उलट-पलट कर देखते रहे। यह क्रम बहुत देर तक चलता रहा और सुबह हो गई। बाहर पेड़ों पर जब पक्षी चहचहाने लगे कि अचानक उनके मस्तिष्क में एक विचार कौंधा। वे उसी समय लोहे का एक पतला तार ले आए। उसके बाद उन्होंने उस तार को एक गुड्डे के कान में डाला। तार कुछ दूर जाने पर रुक गई। उन्होनें उस गुड्डे को अलग कर किनारे पर रख दिया। फिर उन्होंने दूसरे गुड्डे के साथ भी ऐसा ही किया। इस बार यह तार दूसरे कान से बाहर निकल आई। अब तीसरे गुड्डे की बारी थी। उन्होंने उसके कान में वही प्रयोग किया तो देखा कि तार का दूसरा कोना मुंह के रास्ते बाहर आ रहा है। मंत्री का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा।
ठीक तीसरे दिन राजदरबार में सभा बैठी। राज्य के सभी गुणवान व्यक्ति अपने-अपने आसन पर विराजमान थे। राजा भी बड़ी अधीरता से अपनी गद्दी पर बैठे हुए थे परंतु मंत्री अभी तक वहां हाजिर नहीं हुए थे। इसलिए व्याकुलता उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी। इससे पहले कि वे कोई आदेश देते कि तभी मंत्री उन गुड्डों के साथ वहां उपस्थित हुए। उनके सम्मान में सभी लोग खड़े हो गए।
मंत्री ने आसन ग्रहण कर राजा की ओर देखते हुए कहा, ‘‘महाराज मैंने इन गुड्डों का रहस्य जान लिया है।’’
राजा आनंद से उछल पड़े। दरबार के सभी लोग इनका रहस्य जानने के लिए उत्सुक थे।
मंत्री ने लोहे की तार पहले गुड्डे के कान में डालते हुए कहा, ‘‘ महाराज यह तार इस गुड्डे के कान में कुछ दूर जाकर रुक गई है, जिसका अर्थ है कि यह सबसे अच्छा गुड्डा है अर्थात जो सारी बातें सुनता है पर उसे बिना कारण किसी को नहीं बताता। वह उत्तम श्रेणी का व्यक्ति है। दूसरे के कान में तार डालने पर वह दूसरे कान से निकल गई। मंत्री ने बताया कि जो एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देता है वह मध्य श्रेणी का व्यक्ति है।
अब तीसरे गुड्डे को देखें। कहते हुए मंत्री ने वह तार उसके कान में डाली, जो मुंह से बाहर निकल आई। यह अधम श्रेणी का गुड्डा है, जो कान से सुनकर सभी बातों को मुंह से निकाल देता है।
इन तीनों गुड्डों का रहस्य जानकर महाराज विस्मय और आनंद से अभिभूत हो उठे। सारा दरबार मंत्री की जय जयकार करने लगा। महाराज ने दिल्ली के दूत को अतिथिगृह से बुलवाया और उसे गुड्डों को लौटाते हुए एक पत्र दिया, ‘‘इसे ले जाकर सुल्तान को दे देना।’’
दिल्ली लौट कर जब दूत ने सुल्तान को पत्र दिया तो वह पढ़कर दंग रह गया। उसके मुंह से बस यही निकला--विजयगढ़ वाकई अजेय है।
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