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    कबूतर का जोड़ा और शिकारी ( The Dove and the Hunter ) :- पंचतंत्र




    अपने शरणागत अतिथि की सेवा करो । जो जीव अपने अतिथि का सत्कार नहीं करता उसके सब पुण्य छूटकर अतिथि के साथ चले जाते हैं और सब पाप वहीं रह जाते हैं ।" कैसे  इस कहानी  मै, महात्मा कबूतर शिकारी की भूख मिटाने के लियेे   स्वयं जलती आग में कूद पड़ा । अपने शरीर का बलिदान करके भी, उसने शिकारी की भूख मिटा कर अपना  कर्तव्य पूरा किया ।

    एक जगह एक लोभी और निर्दय शिकारी रहता था । पक्षियों को मारकर खाना ही उसका काम था । इस भयंकर काम के कारण उसके प्रियजनों ने भी उसका त्याग कर दिया था । तब से वह अकेला ही, हाथ में जाल और लाठी लेकर जंगल में पक्षियों के शिकार के लिये घूमा करता था ।

    एक दिन उसके जाल में एक कबूतरी फँस गई । उसे लेकर जब वह अपनी कुटिया की ओर चला तो आकाश बादलों से घिर गया । मूसलधार वर्षा होने लगी । सर्दी से ठिठुर कर शिकारी आश्रय की खोज करने लगा । थोड़ी दूरी पर एक पीपल का वृक्ष था । उसके खोल में घुसते हुए उसने कहा----"यहाँ जो भी रहता है, मैं उसकी शरण जाता हूँ । इस समय जो मेरी सहायता करेगा उसका जन्मभर ऋणी रहूँगा ।"

    उस खोल में वही कबूतर रहता था जिसकी पत्‍नी को शिकारी ने जाल में फँसाया था । कबूतर उस समय पत्‍नी के वियोग से दुःखी होकर विलाप कर रहा था । पति को प्रेमातुर पाकर कबूतरी का मन आनन्द से नाच उठा । उसने मन ही मन सोचा----’मेरे धन्य भाग्य हैं जो ऐसा प्रेमी पति मिला है । पति का प्रेम ही पत्‍नी का जीवन है । पति की प्रसन्नता से ही स्त्री-जीवन सफल होता है । मेरा जीवन सफल हुआ ।’ यह विचार कर वह पति से बोली---



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    "पतिदेव ! मैं तुम्हारे सामने हूँ । इस शिकारी ने मुझे बाँध लिया है । यह मेरे पुराने कर्मों का फल है । हम अपने कर्मफल से ही दुःख भोगते हैं । मेरे बन्धन की चिन्ता छोड़कर तुम इस समय अपने शरणागत अतिथि की सेवा करो । जो जीव अपने अतिथि का सत्कार नहीं करता उसके सब पुण्य छूटकर अतिथि के साथ चले जाते हैं और सब पाप वहीं रह जाते हैं ।"

    पत्‍नी की बात सुन कर कबूतर ने शिकारी से कहा---"चिन्ता न करो शिकारी ! इस घर को भी अपना ही जानो । कहो,मैं तुम्हारी कौन सी सेवा कर सकता हूँ ?"

    शिकारी----"मुझे सर्दी सता रही है, इसका उपाय कर दो ।"

    कबूतर ने लकड़ियाँ इकठ्ठी करके जला दीं । और कहा----"तुम आग सेक कर सर्दी दूर कर लो ।"

    कबूतर को अब अतिथि-सेवा के लिये भोजन की चिन्ता हुई । किन्तु, उसके घोंसले में तो अन्न का एक दाना भी नहीं था । बहुत सोचने के बाद उसने अपने शरीर से ही शिकारी की भूख मिटाने का विचार किया । यह सोच कर वह महात्मा कबूतर स्वयं जलती आग में कूद पड़ा । अपने शरीर का बलिदान करके भी उसने शिकारी के तर्पण करने का प्रण पूरा किया ।

    शिकारी ने जब कबूतर का यह अद्‌भुत बलिदान देखा तो आश्चर्य में डूब गया । उसकी आत्मा उसे धिक्कारने लगी । उसी क्षण उसने कबूतरी को जाल से निकाल कर मुक्त कर दिया और पक्षियों को फँसाने के जाल व अन्य उपकरणों को आग फैंक दिया ।

    कबूतरी अपने पति को आग में जलता देखकर विलाप करने लगी । उसने सोचा----"अपने पति के बिना अब मेरे जीवन का प्रयोजन ही क्या है ? मेरा संसार उजड़ गया, अब किसके लिये प्राण धारण करुँ ?" यह सोच कर वह पतिव्रत भी आग में कूद पड़ी । इन दोंनों के बलिदान पर आकाश से पुष्पवर्षा हुई । शिकारी ने भी उस दिन से प्राणी-हिंसा छोड़ दी ।

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