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    भगवान बुद्ध ओर अंगुलिमाल की कहानी (भगवान बुद्ध ) आध्यात्मिक कथा :-


    भगवान बुद्ध की धर्म-देशना उस जंगल के निकट के ही एक गाँव में हो ,
    रही थी जो अंगुलिमाल के विचरण-क्षेत्र से बहुत दूर नहीं था.

    जब भगवान बुद्ध को अंगुलिमाल के संबंध में कुछ पुरवासियों से और कुछ उनके अपने अंतर्ज्ञान से सारी स्थिसि समझ में आ गई तब वह बिना किसी से कुछ कहे जंगल के पथ पर आगे चल पड़े.

    पुरवासियों ने समझा कि भगवान बुद्ध दैनिक भ्रमण के लिए निकल रहे हैं. कुछ दूर जाएँगें फिर लौट आएँगें. किंतु उनके कुछ दूर जाने के बाद उन्होंने लक्ष्य किया कि भगवान बुद्ध जिस पथ पर अग्रसर हो रहे हैं वह तो अंगुलिमाल के विचरण-क्षेत्र की ओर जाता है. उन्होंने भगवान बुद्ध को सावधान किया. “भगवन, उस ओर ही डाकू अंगुलिमाल का बास है. वह आपको पाएगा तो मार डालेगा. बहुत निर्मम है वह. उधर आप मत जाइए. शिष्यों ने भी उन्हें रोका.

    लेकिन भगवान बुद्ध नहीं माने. तथागत ने उन लोगों से कहा- “मुझे रोको मत. आज मैं रुक गया तो अनर्थ हो जाएगा.

    जब वह नहीं माने तो कुछ शिष्य उनके साथ हो लिए. किंतु भगवान बुद्ध ज्यों ज्यों घने बीहड़ में आगे बढ़ते गए, शिष्य धीरे धीरे कम होने लगे. भगवान बुद्ध जब अंगुलिमाल के निकट पहुँचे तब वह अकेले थे.

    उधर उसकी माँ भी उससे मिलने के लिए चल पड़ी थी. उसे मारने लिए सम्राट के एक बड़ी सेना लेकर चल पड़ने की सूचना उसे सूचना देने के लिए..

    इधर अंगुलिमाल चौकन्ना हो जंगल से होकर जाने वाले बाटों को देख रहा था. उसे एक बाट से उसकी माँ आती दिखी. अपनी माँ को अपनी ओर आते देख वह कुछ सोच में गड़ गया. विधाता ने क्या लिख रखा है मेरे लिए. एक हजारवीं उँगली के लिए अन्य कोई नहीं मिला तो मुझे अपनी माँ की भी हत्या करनी पड़ सकती है. एक पल के लिए लाल डोरों से पटे उसके नेत्रों में माँ की वह गोद स्मरण हो आई जिसमें उसने कभी किलकारी मारी थी. जिसके अधरों के स्पर्श से उसके कपोलों में स्नेह का संचार हो उठता था, एक गुरु को दिए वचन से बँधा मुझे माँ की भी हत्या करनी पड़ेगी. ऐसा उसके मन में होते ही उसके नेत्रों से अश्रु की कुछ बूँदें उसके कपोलों पर ढुलक आईं.

    तभी अन्य मार्ग से आते एक बटोही उसे दिख गया जो कदाचित उसी की ओर आ रहा था. वह कोई बटोही नहीं, स्वयं भगवान बुद्ध थे.

    अंगुलिमाल भगवान बुद्ध के आने के प्रति अनभिज्ञ था. उसने समझा कोई पथिक आ रहा है. वह प्रसन्न हुआ कि अब उसे एक हजारवीं उँगली पाने की प्रतीक्षा में अपनी माँ की हत्या नहीं करनी पड़ेगी.

    वह उस पथिक की ओर झपटा. किंतु कुछ निकट आने पर उसने देखा, वह उसी की ओर आ रहा है. उसकी चलने की गति देखकर थोड़ा अचंभित हुआ. कोई भूले भटके ही इधर आता है, वह भी चौकन्ना और भयभीत हुआ-सा. पर इसके शरीर में तो तनिक भी भय के चिह्न नहीं दिखाई देते. यह चौकन्ना हुआ आगे नहीं बढ़ रहा है. उसकी चाल में एक मतवालापन है. फिर भी उसने पथिक को तेज स्वर में टोका-

    “ऐ पथिक”.

    यह कड़क स्वर सुन बुद्ध पीछे मुड़े तो देखा, सामने एक काला पहाड़-सा विकराल व्यक्ति खड़ा है. और अंगुलिमाल ने देखा, यह कोई पथिक नहीं, एक संन्यासी है. इसके मुख पर शांति के भाव छलक रहे हैं.. उसकी समूची देह में एक सरलता खेल रही है. यह किसी सामान्य पुरुष की अपेक्षा प्रभावान है. इसके साथ एक आभामंडल-सी है. यह देख कुछ क्षण के लिए वह अपनी क्रूरता को भूल गया. उसने सोचा- “यह संन्यासी किसी अन्य देश से आया प्रतीत होता है, तभी यह मेरे भय से अपरिचित है. इसे सावधान कर देना चाहिए. मैं तो अपनी क्रूरता के लिए तो अभिशप्त हूँ किंतु इस संन्यासी के निश्छल भाव को देखकर इस संन्यासी पर हथियार चलाना मुझे उचित प्रतीत नहीं होता“. यह सोच उसने संन्यासी को चेतावनी दी.

             “संन्यासी, क्या तू नहीं जानता कि यह अंगुलिमाल का क्षेत्र है? मैं अंगुलिमाल हूँ. मैं स्वभाव से क्रूर हूँ. जो भी इधर आता है मैं उसे मार डालता हूँ. लगता है तू इधर भटक कर आ गए हो.”

    “अंगुलिमाल, मैं भटककर इधर नहीं आया हूँ. मैं स्वयं अपनी इच्छा से तुम्हारे पास आया हूँ. मैं तुम्हें जानता हूँ. हत्या को तुमने अपना धर्म बना लिया है. पर हत्या करना तुम्हारा स्वभाव नहीं है, यह भी मैं जानता हूं. मुझे यह भी ज्ञात है कि आज किसी की हत्या कर तू 1000 वीं उँगली अपनी उँगलियों की माला में जोड़ने वाले हो. तुम्हें 1000 उँगलियाँ अपने गुरु को दक्षिणा में देनी है. तुम मुझे नहीं जानते. मैं गौतम बुद्ध हूँ. अबतक तू निर्दोषों की हत्या करता रहा है शिकार की तरह. तुम मेरी हत्या कर उस 1000 वीं उँगली को प्राप्त करो. उँगलियाँ प्राप्त करने के लिए प्रारंभ में तूने लोगों से स्वेच्छा से उँगलियाँ देने की प्रार्थना की थी. मैं स्वेच्छा से तुम्हें अपनी उँगली देने आया हूँ. यही इच्छा लेकर तुम्हारी माँ भी तुम्हारे पास आनेवाली है. किंतु मैं नहीं चाहता कि तुम मातृहंता बनो. अभीतक तुम पूर्ण पापी नहीं बन सके हो. माता की हत्या कर तुम पूर्ण पापी बन जाओगे. जिसकी कहीं क्षमा नहीं हो सकेगी.“

    अंगुलिमाल बुद्ध की ये बातें सुनकर चौंका. इस संन्यासी को तो सबकुछ पता है. उसके प्रभाव को एक ओर झिटक कर बोला-

    “संन्यासी, मैं किसी बुद्ध को नहीं जानता. मैं केवल अपने गुरु को जानता हूँ. प्रारंभ में लोगों ने मुझे उँगलियाँ नहीं दी इस कारण मैं हत्या में प्रवृत नहीं हुआ हूँ. मुझे ये 1000 अँगलियाँ अपने गुरु को दक्षिणा में देनी हैं. इस समय मुझे एक ही धुन है, 1000 वीं उँगली को प्राप्त करने की. तेरी बातें सुनने में अच्छी लगती हैं किंतु मैं अपनी प्रतिज्ञा से पीछे नहीं हट सकता. किंतु तुम्हें मारना भी नहीं चाहता. अतः मैं पुनः कहता हूँ तू चला जा. मैं किसी और को मारकर 1000 वीं उँगली प्राप्त कर लूँगा.”

    अंगुलिमाल तथागत को नहीं जानता था. उनके संबंध में हवा में तिरती सूचनाएँ भी उस तक नहीं पहुँच सकीं थीं हालाँकि सम्राट प्रसेनजित तक बुद्ध के सावत्थी में आने की सूचना हो चुकी थी. वास्तव में तक्षशिला में अंगुलिमाल जब अभी अहिंसक नाम से ही स्नातक का छात्र था बुद्ध अभी गौतम ही थे. वह अभी बुद्ध नहीं हुए थे. उन्हें 43 वर्ष की अवस्था में बुद्धत्व की प्राप्ति हुई. उस समय अंगुलिमाल वनस्थ हो गया था.

    बुद्ध ने कहा-

    “मैं यहाँ से जाने के लिए नहीं आया हूँ. मैं तुझसे पुनः कहता हूँ. तू मुझे मारकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर.“

    “तू नहीं मानता, तो ठहर मैं अभी तुझे मारता हूँ. “

    अंगुलिमाल खाँड़ लेकर संन्यासी को मारने दौड़ा. लेकिन यह देखकर वह अचंभा में पड़ गया कि जितना ही वह संन्यासी की ओर दौड़ रहा है संन्यासी से उसकी दूरी कम नहीं हो रही. तेज गति से भागने वालों को भी दौड़ कर पकड़ते उसे देर नहीं लगती थी. पर इस संन्यासी को वह नहीं पकड़ पा रहा है. उसे लगा, जितना वह संन्यासी की ओर भाग रहा है संन्यासी भी उसी गति से पीछे की ओर भाग रहा है. (बुद्ध ने अपनी अंतर्शक्ति के बल पर उसे एक विभ्रम में डाल दिया था.)

    वह क्रोध से चिल्लाया-

    “संन्यासी, तू कह रहा है कि तुझे मारकर मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करूँ,

    और मैं तुझे मारने चला तो तू पीछे भागता जा रहा है. “

    बुद्ध बोले, “मैं कहाँ भाग रहा हूँ. मैंने तो वर्षों पहले भागना छोड़ दिया. मैं  अब पूर्णतः स्थिर हूँ. भाग तो तुम रहे हो. तुम अपने अंदर ढूँढ़ के देखो. तुम्हारा मन चौबीसों घड़ी भाग रहा है. भाग कर मुझे पकड़ो और मारो. हाँ, मुझे मारने के पूर्व तुम मेरा एक कार्य कर दो.“

              “ कहो.”

              “उस वृक्ष की एक पत्ती तोड़ो.”

    अंगुलिमाल ने पास के वृक्ष की डाल से एक पत्ती तोड़ी और बुद्ध को देने के लिए हाथ बढ़ाया. बुद्ध ने कहा,

    “इसे मुझे मत दो. इसे तुम पुनः उस डाल से उसी स्थान पर जोड़ दो जहाँ से उसे तोड़े हो.”

       “यह कैसे हो सकता है. जो पत्ती टूट गई उसे पुनः जोड़ा नहीं जा सकता.“

    बुद्ध ने कहा-

    “डाल से तुम पत्ती तोड़ सकते हो किंतु उस पत्ती को उस डाल के उसी स्थान पर तुम जोड़ नहीं सकते. तो सोचो, जिस जीवन को तुम पुनः दे नहीं सकते उसे तुम छीन कैसे सकते हो.”

    बुद्ध द्वारा ये वाक्य ऐसे समस्वर में कहे गए थे कि इसकी चोट सीधे उसके हृदय पर पड़ी. उसकी हृत्तंत्री झंकृत हो उठी. यह झंकृति अंगुलिमाल के पोर-पोर, रंध्र-रंध्र को बेध गई. उनके उस मर्मस्पर्शी स्वर को सुन वह अंतर्विमुग्ध अवाक रह गया. ऐसी अनुभूति उसे इसके पहले कभी नहीं हुई थी. बुद्ध की बातें सुनकर उसके शरीर के अणु-अणु में न जाने क्या होने लगा कि उसके कठोर शरीर में मृदुता आने लगी, उसका तना-अकड़ा शरीर ढीला पड़ने लगा. उसके मुखमंडल पर स्पष्ट दिख रहे तनावों की बंकिम लकीरें शिथिल होने लगीं. बुद्ध को मारने को उठा हाथ उठा ही रह गया. ढीली होती उँगलियों से खाँड़ भूमि पर गिर गया. उसका शीश झुकने लगा. वह निढाल हो गया और अंततः उसका शीश बुद्ध के चरणों में झुक गया. कुछ ही भणों में वहाँ बहुत कुछ घट गया. जो अंगुलिमाल कभी खूंखारता का पर्याय होता था वह अब सरलता की मूरत लग रहा था. उसके भीतर घट चुकी अतींद्रिय अंतर्घटना ने उसमें बुद्ध का शिष्य बनने की लालसा भर दी. उसके मुँह से सहसा फूट पड़ा-

    “भगवन, अंगुलिमाल आपके चरणों में है. आप मुझे अपनी शरण में ले लें, मुझे अपना शिष्य बना लें.”

    और करुणावान तथागत ने उसे अपना शिष्य बना लिया.

    उस समय प्रकृति भी मनोहर हो उठी थी. अंगुलिमाल की क्रूरता से वन के जिन पत्थरों, वृक्षों, वृक्षों की पत्तियों, फुनगियों और झाड़ियों में मृत्यु का ग्रास बने लोगों की अनवरत चीखों, चीत्कारों ने घुलकर उन्हें कठोर बना दिए थे उनमें अब मर्मर ध्वनि की अनुगूँज भरने लगी. धीरे धीरे मंद मंद हवाओं के स्फुरण से वन की हरीतिमा मनोमय हो रही थी.

    जब उसकी माँ वहाँ पहुँची, अंगुलिमाल तथागत का शिष्यत्व ग्रहण कर चुका था.

    (ये भी पड़े .. अंगुलिमाल इतना क्रूर कैसे बना और क्या हुआ उसके साथ कि ओ लोगों की उंगलियां काट कर उसकी माला बना रहा था ....)

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