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    नूरुद्दीन और पारस देश की दासी की कहानी (Story of Nuruddin and the Maid of Paras Country) :- अलिफ लैला

    नूरुद्दीन और पारस देश की दासी की कहानी (Story of Nuruddin and the Maid of Paras Country) :-  अलिफ लैला (Alif Laila)




    अगली सुबह से पहले शहरजाद ने नई कहानी शुरू करते हुए कहा कि पहले जमाने में बसरा बगदाद के अधीन था। बगदाद में खलीफा हारूँ रशीद का राज था और उसने अपने चचेरे भाई जुबैनी को बसरा का हाकिम बनाया था। जुबैनी के दो मंत्री थे। एक का नाम था खाकान और दूसरे का सूएखाकान। खाकान उदार और क्षमाशील था और इसलिए बड़ा लोकप्रिय था। सूएखाकान उतना ही क्रूर और अन्यायी था और प्रजा उससे रुष्ट थी। सूएखाकान अपने सहयोगी मंत्री खाकान के प्रति भी विद्वेष रखता था।

    एक दिन जुबैनी ने खाकान से कहा कि मुझे एक दासी चाहिए जो अति सुंदर हो तथा गायन-वादन तथा अन्य विद्याओं में निपुण भी हो। खाकान के बोलने के पहले ही सूएखाकान बोल उठा, ऐसी लौंडी तो दस हजार अशर्फी से कम में नहीं आएगी। जुबैनी ने आँखें तरेर कर कहा, तुम समझते हो दस हजार अशर्फियाँ मेरे लिए बड़ी चीज हैं? यह कह कर उसने खाकान को दस हजार अशर्फियाँ दिलवा दीं। खाकान ने घर आ कर दलालों को बुलाया और उनसे कहा कि तुम जुबैनी के लिए अति सुंदर और सारी विद्याओं, कलाओं में निपुण एक दासी तलाश करो चाहे जितने मोल की हो। सारे दलाल इच्छित प्रकार की दासी ढूँढ़ने में लग गए।

    कुछ दिनों बाद एक दलाल खाकान के पास आ कर बोला कि एक व्यापारी ऐसी ही दासी लाया है जैसी आपने कहा था। खाकान के कहने पर दलाल उस व्यापारी को दासी समेत ले आया। खाकान ने आ कर जाँच-परख की तो दासी को हर प्रकार से गुणसंपन्न पाया और जुबैनी की आशा से अधिक सुंदर भी पाया। उसने व्यापारी से उसका दाम पूछा तो उसने कहा, स्वामी, यह रत्न तो अनमोल है। किंतु मैं आप के हाथ मात्र दस हजार अशर्फियों पर बेच दूँगा। इसके लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा पर मैंने बहुत श्रम किया है। यह गायन, वादन, साहित्य, इतिहास और सारी विद्याओं में पारंगत है और अभी तक अक्षत है। मंत्री ने बगैर कुछ कहे दस हजार अशर्फियाँ गिनवा दीं।

    व्यापारी ने कहा, सरकार, एक निवेदन और है। इसे एक सप्ताह बाद ही हाकिम के पास ले जाएँ। कारण यह है कि यह बहुत दूर की यात्रा से बड़ी क्लांत है और एक हफ्ते के अंदर इसे अच्छा खिलाएँगे-पिलाएँगे और दो बार गरम पानी से नहलाएँगे तो इसका रूप ऐसा निखरेगा कि आप भी इसे पहचान नहीं सकेंगे। खाकान ने यह बात मान ली। उक्त दासी को उसने अपनी पत्नी के सुपुर्द किया और कहा कि इसे एक सप्ताह तक खिलाओ-पिलाओ और दो बार गरम हम्माम में भेजो, फिर मैं उसे जुबैनी के सामने पेश करूँगा। उसने दासी से भी, जिसका नाम हुस्न अफरोज था, कहा, देख, तुझे मैंने अपने स्वामी के लिए मोल लिया है। तू यहाँ आराम से किंतु बड़ी होशियारी से रह। खबरदार, किसी पुरुष से तेरा संसर्ग न हो। खास तौर से तू मेरे जवान बेटे नूरुद्दीन से सावधान रहना। वह दिन में कई बार अपनी माँ के पास आया करता है। हुस्न अफरोज ने खाकान से कहा, सरकार, आपने बहुत अच्छा किया जो मुझे यह चेतावनी दे दी। अब आप इत्मीनान रखिए। आपकी आज्ञा के विरुद्ध कोई बात नहीं होगी।
    खाकान इसके बाद दरबार को चला गया। दोपहर के भोजन के समय नूरुद्दीन अपनी माँ के पास आया तो उसने देखा कि उसकी माँ के पास एक कंचनवर्णी, मृगनयनी, गजगामिनी षोडशी बैठी है। सौंदर्य की इस प्रतिमूर्ति को देखते ही उसका हृदय उस दासी के लिए बेचैन हो गया। उसके पूछने पर उसकी माँ ने बताया कि इस दासी को जो पारस देश से आई है, तुम्हारे पिता ने बसरा के हाकिम जुबैनी की सेवा के लिए खरीदा है। इसके बावजूद नूरुद्दीन उससे अपना मन न हटा सका और ऐसी तरकीब सोचने लगा जिससे वह दासी उसके हत्थे चढ़ जाए। नूरुद्दीन अत्यंत सुंदर था। इसलिए हुस्न अफरोज भी भगवान से प्रार्थना करने लगी कि कोई ऐसी बात हो जाए जिससे मैं हाकिम के बजाय इसी सजीले नौजवान के पास रह सकूँ।

    उस दिन से नूरुद्दीन ने यह नियम बना लिया कि अक्सर अपनी माँ के पास आता और हुस्न आफरोज से आँखों-आँखों में बातें करता। हुस्न अफरोज भी खाकान की पत्नी की आँख बचा कर नूरुद्दीन से प्रेमपूर्वक आँखें मिलाती और संकेत ही में अपने हृदय की अभिलाषा कहती। यह मौन दृष्टि-विनिमय कब तक छुपाता। नूरुद्दीन की माँ उसका इरादा समझ गई और उससे बोली, प्यारे बेटे, अब भगवान की दया से तुम जवान हो गए हो। अब तुम्हारे लिए उचित नहीं है कि स्त्रियों में अधिक बैठो। तुम दोपहर का भोजन कर के तुरंत बाहर मरदाने में चले जाया करो। नूरुद्दीन ने विवशता में यह मान लिया।

    दो दिन बाद खाकान की पत्नी ने कुछ दासियों के साथ हुस्न अफरोज को हम्माम में भेजा। उन्होंने उसे गरम पानी से मल-मल कर नहलाया और फिर नए सुनहरे कपड़े पहनाए। जब वह खाकान की पत्नी के पास आई तो बुढ़िया उसे न पहचान सकी और बोली, बेटी, तुम कौन हो? कहाँ से आई हो? उसने हँस कर कहा, मैं आपकी दासी हुस्न अफरोज हूँ, केवल स्नान कर के आई हूँ। आपने जो दासियाँ मेरे साथ भेजी थीं वे भी कह रही थीं कि तुम स्नान के बाद इतनी अच्छी हो गई हो कि पहचानी नहीं जातीं। खाकान की पत्नी ने कहा, सचमुच तुम पहचानी नहीं जातीं। दासियों ने यह बात तुम्हारी खुशामद में नहीं कही थी। मैं भी तो तुम्हें नहीं पहचान सकी। अच्छा, यह बताओ कि हम्माम में अभी कुछ गरम पानी बचा है या तुमने सब खर्च कर डाला। मैंने भी बहुत दिन से नहीं नहाया है और नहा कर तरोताजा होना चाहती हूँ। हुस्न अफरोज ने कहा, जरूर नहाइए। अभी काफी गरम पानी हम्माम में मौजूद है।

    खाकान की पत्नी ने हम्माम में जाने से पहले दो दासियों को हुस्न अफरोज की रक्षा के लिए नियुक्त किया और कहा कि इस बीच अगर नूरुद्दीन आए और हुस्न अफरोज के पास जाने का प्रयत्न करें तो तुम उसे ऐसा न करने देना। यह कह कर वह हम्माम में चली गई और मल-मल कर नहाने लगी। संयोग से उसी समय नूरुद्दीन आ गया। उसने देखा कि माँ अभी हम्माम से देर तक नहीं निकलेगी, यह अच्छा मौका है। वह हुस्न अफरोज का हाथ पकड़ कर उसे एक कमरे में ले जाने लगा। दासियों ने उसे बहुत रोका लेकिन वह कहाँ माननेवाला था। उसने दोनों दासियों को धक्के देते हुए महल के बाहर निकाल दिया और खुद हुस्न अफरोज को ले कर कमरे में चला गया और द्वार अंदर से बंद कर लिया। हुस्न अफरोज तो स्वयं उस पर मुग्ध थी, दोनों ने प्रेम मिलन का खूब आनंद लूटा।

    जिन दासियों को उसने धकिया कर निकाला था वे रोती-पीटती हम्माम के दरवाजे पर पहुँचीं और मालकिन का नाम ले कर गुहार करने लगीं। खाकान की पत्नी ने पूछा तो दोनों ने सारा हाल बताया। वह घबराहट के मारे काँपने लगी और बगैर नहाए ही अपने महल में आ गई। इतनी देर में नूरुद्दीन भोग-विलास कर के महल से बाहर जा चुका था।

    खाकान की पत्नी को सिर पीटते देख कर हुस्न अफरोज को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, मालकिन, ऐसी क्या बात हो गई? आप इतनी व्याकुल क्यों हैं। ऐसा क्या हुआ कि आप बगैर स्नान किए ही आ गईं। उसने दाँत पीस कर कहा, कमबख्त, तू मुझ से पूछती है कि क्या हुआ? तुझे नहीं मालूम है कि क्या हुआ? मैंने तुझे बताया नहीं था कि तू जुबैनी की सेवा के लिए खरीदी गई है? फिर तूने नूरुद्दीन को अपने पास क्यों आने दिया? हुस्न अफरोज ने कहा, मालकिन माँ, इसमें क्या गलती की है मैंने? यह ठीक है कि सरकार ने मुझे बताया था कि मैं हाकिम के लिए खरीदी गई हूँ किंतु इस समय आपके पुत्र ने मुझसे कहा था कि मेरे पिता ने तुम्हें मेरी सेवा में दे दिया है और तुम्हें बसरा के हाकिम के पास नहीं भजेंगे। अब जब मैं उनकी हो ही गई तो उन्हें क्यों रोकती? फिर सच्ची बात है कि उन्हें जब से देखा था मेरा मन उनसे मिलने को लालायित था। मैं खुद ही चाहती हूँ कि जीवन भर उनकी चरण सेवा करूँ और बसरा के हाकिम जुबैनी का कभी मुँह न देखूँ।

    खाकान की पत्नी बोली, हृदय तो मेरा भी इसी में प्रसन्न होगा कि तू नूरुद्दीन के पास रहे। किंतु उस लड़के ने झूठ बोला है। मुझे तो डर यह है कि मंत्री जब यह सुनेंगे तो उसे मरवा डालेंगे। अब मैं रोऊँ नहीं तो क्या करूँ? इतने में मंत्री भी आ गया। उसने पत्नी से रोने का कारण पूछा।
    मंत्री की पत्नी ने कहा, सच्ची बात छुपाने से कोई लाभ नहीं। मैं हम्माम में नहाने गई थी इसी बीच तुम्हारे इकलौते पुत्र ने यह कह कर इस लौंडी को खराब कर डाला कि तुमने वह लौंडी उसे दे दी थी। तुमने उसे लौंडी दी है या नहीं?

    खाकान यह सुन कर सिर पीटने लगा और चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगा इस बदमाश लड़के ने हम सब का नाश कर दिया। हाकिम जुबैनी के लिए ली हुई अक्षत दासी को खराब कर दिया। मेरी सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला दी। और सिर्फ अपमान की ही बात नहीं है। हाकिम को यह मालूम होगा तो वह मुझे भी मरवा डालेगा और उस अभागे को भी। उसकी पत्नी ने कहा, स्वामी, जो हो गया उस पर अफसोस करने से क्या लाभ? मैं अपने सारे जेवर उतारे देती हूँ। इन्हें बेचने पर दस हजार अशर्फियाँ तो मिल ही जाएँगी। तुम उनसे दूसरी दासी खरीद लेना और हाकिम को दे देना।

    मंत्री ने कहा, क्या तुम समझती हो कि मैं दस हजार अशर्फियों के लिए रो रहा हूँ या इतनी रकम खुद खर्च नहीं कर सकता? मुझे दुख इस बात का है कि मेरी प्रतिष्ठा खतरे में है। सूएखाकान जरूर हाकिम से कह देगा कि मैंने जो दासी हाकिम के लिए खरीदी थी वह अपने बेटे को दे डाली। उसकी पत्नी ने कहा, सूएखाकान निस्संदेह तुम्हारा शत्रु है किंतु हमारे घर के अंदर का हाल उसे क्या मालूम? फिर अगर कोई चुगली भी करे तो तुम हाकिम से कह देना कि मैंने आपके लिए एक दासी खरीदी जरूर थी किंतु उसकी शरीर-परीक्षा से ज्ञात हुआ कि वह आपके योग्य नहीं थी। इस तरह सूएखाकान की शिकायत का कोई प्रभाव नहीं रहेगा। इधर तुम फिर दलालों को बुलवाओ और नई सर्वगुण संपन्न दासी लाने के लिए कहो।

    पत्नी के समझाने से मंत्री को ढाँढ़स बँधा। उसका नूरुद्दीन पर उतना क्रोध न रहा किंतु वह उसे क्षमा भी नहीं कर सका। नूरुद्दीन अपने पिता से छुप कर रात के समय महल में आता और सुबह पिता के जागने के पहले बाहर चला जाता। फिर भी उसकी माँ को यह भय और चिंता लगी रहती थी कि कभी मंत्री ने नूरुद्दीन को देखा तो उसका क्रोध फिर भड़क उठेगा और वह उसे जरूर मार डालेगा। उसने एक दिन अपने पति से यह बात पूछी तो उसने कहा कि मैं पाऊँगा तो जरूर उसे मार डालूँगा। पत्नी ने कहा, देखो, वह तुम्हारा इकलौता बेटा है। जवानी में आदमी से भूल हो ही जाती है। उससे भी हो गई। रही यह बात कि उसे अपने अपराध की गंभीरता का पता चल जाए तो उसकी तरकीब मैं बताती हूँ। तुम उसे पकड़ लेना और मारने के लिए तलवार निकाल लेना। फिर मैं तुम्हारी खुशामद कर के उसे छुड़ा लूँगी। मंत्री को यह सुझाव पसंद आया।

    दूसरे दिन सवेरे पत्नी के इशारे पर मंत्री ने दरवाजे पर जा कर नूरुद्दीन को धर दबोचा और तलवार निकाल कर उसे मारने के लिए उठाई। तभी उसकी पत्नी ने आ कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, तुम इसे मारना ही चाहते हो तो पहले मुझे मार डालो। नूरुद्दीन ने भी गिड़गिड़ा कर प्राण-भिक्षा माँगी और कहा कि इतने-से कसूर पर आप मेरी जान लेंगे तो कयामत में खुदा को क्या जवाब देंगे? मंत्री ने तलवार फेंक कर कहा, तुम मेरे नहीं, अपनी माँ के पाँवों पर गिरो, उसी के कहने पर मैंने तुम्हें छोड़ा है। मैं तुम्हें हुस्न अफरोज भी देता हूँ लेकिन खबरदार उसके साथ ब्याहता का व्यवहार करना, दासी का नहीं। और उसे किसी दशा में न बेचना।

    इसके बाद नूरुद्दीन आनंदपूर्वक हुस्न अफरोज के साथ रहने लगा और मंत्री भी उन दोनों की परस्पर प्रीति देख कर प्रसन्न हुआ और संतोष से रहने लगा। जुबैनी के सामने उसने दासी के बारे में वही कह दिया जो उसकी पत्नी ने कहा था।

    इसके एक वर्ष बाद की बात है। मंत्री ने गरम पानी से देर तक स्नान किया किंतु अचानक कुछ ऐसा काम आ पड़ा कि वह बाहर निकल आया। गर्मी से अचानक सर्दी में आ जाने के कारण वह बीमार हो गया और उसका रोग बढ़ता गया। अपना अंत समय निकट देख कर नूरुद्दीन से, जो उसकी परिचर्या के लिए बराबर उसके पास रहता था, कहा, मैंने पहले भी कहा था और अब फिर कहता हूँ कि हुस्न अफरोज को प्यार से रखना और उसे कभी बेचना नहीं। इसके बाद उसने शरीर छोड़ दिया।

    नूरुद्दीन ने उसकी बड़ी धूमधाम से अंत्येष्टि की और चालीस दिन तक बाप का मातम किया। इसी बीच उसने किसी मित्र आदि को अपने पास आने की अनुमति नहीं दी। फिर धीरे-धीरे उसके मित्र उसे तसल्ली देने के लिए आने लगे और कुछ दिनों में मित्रों के आने का ताँता लग गया। नूरुद्दीन अल्पवयस्क और अनुभवहीन था। उसके मित्रों ने इस बात का अनुचित लाभ उठाया। उन्होंने रासरंग के सुझाव दिए और नूरुद्दीन ने दोनों हाथों से धन लुटाना आरंभ किया और उसके मित्र धन से अपना घर भरने लगे। एक दिन हुस्न अफरोज ने उसे समझाया, तुमने अपने कमीने मित्रों पर बहुत कुछ लुटा दिया, अब चेत जाओ और यह फिजूलखर्चियाँ बंद कर दो। नूरुद्दीन हँस कर बोला, क्या बात करती हो? क्या मेरे पिता मरने पर अपने साथ ले गए और क्या मैं ले जाऊँगा? फिर जीवन में आनंद लेने के लिए अपने धन का प्रयोग क्यों न करूँ?

    दो-चार दिन बाद उसका गृह-प्रबंधक उसके पास आया और बही-खाता खोल कर उसे सारी स्थिति बताने के बाद उससे बोला, आप ने इस थोड़े ही समय में बहुत अधिक खर्च कर दिया है। आपके स्वामिभक्त सेवकों से आपकी यह बरबादी नहीं देखी जाती। इसलिए उनमें से बहुत-से लोग काम छोड़ कर चले गए हैं। यही हाल रहा तो मैं भी अधिक दिनों तक आपकी सेवा नहीं कर सकूँगा। या तो आप अपने अपव्यय को रोकिए या मेरा हिसाब साफ कर मुझे विदा कीजिए।

    प्रबंधक के लाख समझने पर भी नूरुद्दीन ने अलल्ले-तलल्ले नहीं छोड़े। उसके मित्र उसे पहले से अधिक लूटने लगे। कभी कोई आता और कहता, आपका अमुक बाग और उसमें बना मकान मुझे बहुत भा गया है। आपको तो कोई कमी नहीं, आप उसे मुझे दे दीजिए। और मूर्ख नूरुद्दीन उसके नाम वह बाग और उसके अंदर का मकान लिख देता। इसी प्रकार कोई उसके अरबी घोड़े या विशालकाय हाथी की प्रशंसा करता और नूरुद्दीन उसे भी दे डालता। कुछ ही दिनों में यह हाल हो गया कि उसके पास अपने रहने के महल के अलावा और कुछ नहीं रहा।

    अब उसके मित्र उससे कन्नी काटने लगे। वे उसके पास नहीं आते थे। अकेलेपन से घबरा कर वह किसी को बुलाता तो वह न आता और अगर आता भी तो दो-चार मिनट बैठ कर चला जाता। कभी-कभी कोई मित्र घर ही से पत्नी की बीमारी का या इसी प्रकार का कोई और कुछ बहाना बना लेता। इसी प्रकार मित्रों की उदासीनता से आश्चर्यान्वित हो कर उसने एक दिन हुस्न अफरोज से इस बात का उल्लेख किया। उसने कहा, प्रियवर, मैंने तो पहले ही कहा था कि यह सारे आदमी स्वार्थी हैं।

    बात मित्रों की उदासीनता तक ही नहीं रही। आमदनी तो कुछ भी नहीं थी। धीरे-धीरे घर का सामान और दास-दासियाँ बिक गए। वेतनभोगी सेवक पहले ही चले गए थे। अब घर में खाने को भी कुछ नहीं रहा। दो दिन तक उपवास हुआ तो तीसरे दिन हुस्न अफरोज आँखों में आँसू भर कर बोली, प्रियतम, अब इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि तुम मुझे बाजार में बेच दो। और जो मिले उससे भाग्य आजमाओ। नूरुद्दीन ने कहा, तुम्हें बेचना तो असंभव है। किंतु मुझे कुछ मित्रों से आशा है, वह इस आड़े समय में मेरी सहायता अवश्य करेंगे। हुस्न अफरोज बोली, यह तुम्हारा ख्याल ही ख्याल है। तुम्हारे मित्रों में कोई भी तुम्हारा हितचिंतक नहीं था। नूरुद्दीन ने कहा, ऐसी बात नहीं है। तुम क्या जानो कि वह लोग कैसे हैं? वह चुप हो रही। नूरुद्दीन सवेरे उठ कर एक मित्र के घर कुछ कर्ज माँगने के लिए गया। दरवाजे पर आवाज देने पर एक दासी बाहर निकली। नूरुद्दीन ने उसे अपना नाम बताया। उसने कहा, आप अंदर जा कर बैठें, मैं अभी खबर करती हूँ। उसे बिठा कर दासी ने अपने मालिक से कहा कि नूरुद्दीन आपसे मिलने आए हैं। मालिक ने क्रुद्ध हो कर कहा, तुमने उसे अंदर क्यों बिठाया। अब जा कर उससे कह दे मालिक घर पर नहीं हैं।
    नूरुद्दीन ने यह वार्तालाप सुन लिया। दासी ने बाहर आ कर लज्जित स्वर में मालिक की अनुपस्थिति की बात कहीं। नूरुद्दीन चुपचाप उठ आया। वह मन में सोचने लगा कि यह आदमी तो बड़ा ही दुष्ट निकला। कल तक मेरी प्रशंसा के पुल बाँधा करता था, मेरे ही मकान में रहता है और अब मुझसे हीं नही मिल रहा है। वह एक और मित्र के यहाँ गया जो पहले मित्र से कुछ कम धनवान था। वहाँ भी उसके साथ वही व्यवहार हुआ। इस तरह एक-एक कर के अपने दस मित्रों के घरों पर नूरुद्दीन गया किंतु किसी मित्र ने उससे बात भी न की, सहायता देना तो दूर की बात थी।

    वह बेचारा अत्यंत आहत हो कर घर आया और अपनी प्रेयसी के सामने फूट पड़ा। आँसू बहाते हुए बोला, कैसी नीच है ये दुनिया। यही लोग कल तक मेरी जूतियाँ सीधी करने में गर्व का अनुभव करते थे और आज यह हाल है कि मुझ से कोई बात भी नहीं करना चाहता। मेरा हाल तो फलदार वृक्ष जैसा हो गया। जब तक फलों से लदा था सभी आदमी मेरे आसपास घूमा करते थे, अब कोई पास भी नहीं फटकता।

    हुस्न अफरोज ने कहा, तुम्हें अब यह मालूम हुआ हैं। मैं तो शुरू ही से उनके रंग-ढंग से जानती थी कि वे सब महास्वार्थी हैं। मैं इसीलिए तुम्हें समझाया करती थी कि उनका साथ न करो।

    खैर अब पिछली बातों का क्या रोना, अब यह सोचना है कि आगे क्या होगा। अब तो घर में भी कोई ऐसा सामान नहीं है जो बेच सको और दास-दासी तो तुम पहले ही बेच चुके हो। मकान बेच दोगे तो हम लोग रहेंगे कहाँ। इसलिए ऐसा करो कि मुझे दासों की मंडी में ले चलो। तुम्हें याद होगा कि तुम्हारे पिता ने मुझे दस हजार अशर्फियों में खरीदा था। अब मेरा इतना तो मोल नहीं होगा किंतु इससे आधे को जरूर बिक जाऊँगी। तुम उससे व्यापार करो और जब तुम्हारे पास व्यापार से पैसा आ जाए तो मुझे फिर खरीद लेना।

    नूरुद्दीन ने रोते हुए कहा, एक तो मैं तुम्हें अपनी जान से ज्यादा चाहता हूँ फिर मैंने पिता को उनके अंत समय में वचन दिया है कि किसी भी दशा में तुम्हें नहीं बेचूँगा। हुस्न अफरोज ने कहा, प्रियतम, तुम ठीक कहते हो। मैं भी तुम्हें अपनी जान से ज्यादा चाहती हूँ। किंतु हमारे धर्म के अनुसार विपत्ति पड़ने पर प्रतिज्ञा तोड़ी भी जा सकती है। जैसी विपत्ति तुम पर है उसमें तुम और क्या कर सकते हो।

    अब नूरुद्दीन मजबूर हो कर हुस्न अफरोज को ले कर बाजार में गया। पुराने दलाल को बुला कर उसने कहा, कई वर्ष हुए मेरे पिता के हाथ तुमने एक फारस देश की दासी दस हजार अशर्फियों में बेची थी। अब मैं उसे बेचना चाहता हूँ। तुम उसके लिए खरीदार देखो। दलाल ने उसकी बात मान कर हुस्न अफरोज को एक मकान में बंद कर के बाहर ताला डाल दिया जैसे बिकनेवाले दास-दासियों के साथ करते हैं। फिर वह दासों को खरीदनेवाले व्यापारियों के पास गया। उन व्यापारियों ने कई देशों तथा यूनान, फ्रांस, अफ्रीका आदि की दासियाँ मोल ले रखी थीं।

    दलाल ने उन से कहा, तुम लोगों ने देश-देश की दासियाँ ले रखी हैं किंतु मैं फारस देश की ऐसी दासी तुम्हें दिखाऊँगा जिसके सामने कोई नहीं ठहरेगी। तुम लोगों ने विद्वानों का यह कथन तो सुना ही होगा कि हर गोल चीज सुपारी नहीं होती, हर चपटी चीज अंजीर नहीं होती, हर लाल चीज मांस नहीं होती और हर सफेद चीज अंडा नहीं होती। इसी तरह यह दासी जो चीज है वह कोई और दासी नहीं हो सकती।

    दलाल के साथ जा कर व्यापारियों ने हुस्न अफरोज को देखा। वे कहने लगे कि इसमें संदेह नहीं कि ऐसी सुंदर और बुद्धिमती दासी हमने और कहीं नहीं देखी लेकिन हम सब मिल कर इसे खरीदेंगे और इसका मोल चार हजार अशर्फी लगाएँगे, इससे अधिक देना हमारे वश की बात नहीं है। यह कह कर वे मकान के बाहर आ कर खड़े हो गए। दलाल भी मकान बंद करने के बाद सौदेबाजी करने के लिए उनके पास आया। इसी बीच दुष्ट मंत्री सूएखाकान की सवारी उधर से निकली। उसने पूछा कि यह भीड़ कैसी है। दलाल ने कहा कि यह सब एक दासी लेने के लिए आए हैं और उसका मोल चार हजार अशर्फी लगा रहे हैं। सूएखाकान ने कहा, मुझे भी एक अच्छी लौंडी चाहिए। तुम मुझे वह दासी दिखाओ।

    दलाल ने वजीर को मकान में ले जा कर हुस्न अफरोज को दिखाया। वजीर ने कहा कि मैं चार हजार अशर्फी इसके लिए दूँगा, अगर कोई और इससे अधिक लगाए तो ले जाए। लेकिन इसके साथ ही उसने संकेत ही से सारे व्यापारियों से कह दिया कि खबरदार इसका अधिक मूल्य न लगाना इसलिए वे चुपचाप खड़े रहे। दलाल ने कहा, मैं इसके मालिक को जा कर बताता हूँ कि आपने इसके लिए चार हजार अशर्फियों का दाम लगाया है। अगर वह इस मूल्य पर बेचने को तैयार हो तो आप निस्संदेह दाम दे कर इसे अपने घर ले जाएँ।
    इसके बाद दलाल नूरुद्दीन के पास आ कर बोला, मुझे खेद है कि आपकी दासी उचित से कम मूल्य पर बिक रही है। मैंने व्यापारियों को उसे दिखाया तो वे उसका चार हजार अशर्फी मूल्य देने को तैयार हो गए। मैं इस फिक्र में था कि कुछ देर और प्रतीक्षा करूँ, संभव है कोई आदमी उसका पाँच छह हजार देने के लिए तैयार हो जाए। उसी समय वजीर सूएखाकान की सवारी निकल रही थी। भीड़ देख कर उसने पूछा कि क्या बात है। यह मालूम होने पर कि एक अच्छी दासी बिक रही है उसने उसे देखना चाहा और देखने पर उसके लिए चार हजार अशर्फियाँ लगा दीं।

    साथ ही अन्य व्यापारियों को भी इशारा कर दिया कि इससे अधिक दाम न लगाना। अब बोलो, तुम क्या कहते हो?

    नूरुद्दीन ने कहा, सूएखाकान हमारे कुटुंब का पुराना दुश्मन है। मुझे यह बिल्कुल मंजूर नहीं कि किसी भी कीमत पर उसके हाथों अपनी प्रिय दासी बेचूँ। दलाल ने कहा, वैसे तो वही उसके कुछ अधिक दाम लगा सकता है और मैं उसके हाथ दासी बेचने को विवश हो जाऊँगा। लेकिन अगर तुम वास्तव में उसे किसी दाम पर न बेचना चाहो तो सिर्फ एक तरकीब है। मैं उसे वजीर के हाथ में देने लगूँ तो तुम उसी समय आ जाना और दासी के मुँह पर झूठ-मूठ का थप्पड़ मार कर उसे अपनी ओर घसीट लेना और कहना कि मुझे एक बात पर इस दासी पर क्रोध आ गया था और मैंने प्रतिज्ञा की थी कि बाजार में खड़े-खड़े तेरा सौदा कर दूँगा। वह सौदा हो गया और मेरी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। अब मैं इसे बेचना नहीं चाहता और किसी दाम पर भी इसे नहीं बेचूँगा। नूरुद्दीन ने दलाल की बात बड़ी खुशी से मंजूर कर ली और चुपके-चुपके उसके पीछे दास-दासियों के बाजार में पहुँच गया।

    जिस समय दलाल दासी का हाथ सूएखाकान के हाथ में देने लगा तभी नूरुद्दीन बीच में आ गया। हुस्न अफरोज का दूसरा हाथ पकड़ कर उसने अपनी ओर उसे खींचा और उसके मुँह पर दो तमाचे हलके से मार कर कहा, तू जाती कहाँ है? वह तो तेरी बदतमीजी और आज्ञा न मानने पर मैंने तूझे बेच देने को कहा था। अब तेरी बिक्री हो चुकी। तू सीधी तरह से घर चल। यह कह कर नूरुद्दीन उसे घसीटता हुआ अपने घर की ओर ले चला। सूएखाकान कुछ देर तक इस आकस्मिक घटना के कारण स्तंभित-सा रहा क्योंकि उसे यह भी नहीं मालूम था कि लौंड़ी नूरुद्दीन की संपत्ति है। फिर वह अपमान के कारण क्रोध में जल उठा और घोड़ा दौड़ा कर उसने रास्ते में नूरुद्दीन को जा पकड़ा।

    उसने नूरुद्दीन के एक कोड़ा मारना चाहा लेकिन नूरुद्दीन पहले से होशियार था। उसने कोड़े का वार बचा कर सूएखाकान का हाथ पकड़ कर उसे घोड़े से नीचे खींच लिया। अब दोनों में मल्लयुद्ध होने लगा। वजीर बूढ़ा था और नूरुद्दीन जवान। उसने वजीर को उठा-उठा कर कई बार जमीन पर पटका और खूब रगड़े दिए। बाजार के सारे लोग तमाशा देखने खड़े हो गए। चूँकि सभी सूएखाकान से नाराज थे इसलिए सभी चुपचाप उसकी दुर्दशा देखते रहे और किसी ने सूएखाकान की सहायता नहीं की। यहाँ तक कि जब वजीर के नौकर बचाने के लिए बढ़े तो वहाँ उपस्थित लोगों ने उन्हें यह कह कर रोक दिया, तुम लोग इन दोनों के बीच में न पड़ो। तुम्हें मालूम नहीं कि यह नौजवान भी मंत्री-पुत्र है, दिवंगत मंत्री खाकान का पुत्र है। इसलिए वे भी डर कर रुक गए।

    नूरुद्दीन ने बूढ़े वजीर की दुर्गति कर दी। उसके शरीर से कई जगह खून निकल आया और उसके सारे वस्त्र और शरीर के सारे अंग खून और मिट्टी से सन गए और वह बेदम-सा हो कर एक ओर गिर रहा। नूरुद्दीन हुस्न अफरोज को ले कर अपने घर को चला गया। सूएखाकान वैसे ही लहू और मिट्टी से सने कपड़े और बदन ले कर हाकिम जुबैनी के पास पहुँचा। उसे वजीर को ऐसी दशा में देख कर आश्चर्य हुआ और वह बोला, तुम्हें किसने मारा? सूएखाकान ने हाथ जोड़ कर कहा, सरकार, पुराने मंत्री खाकान के बेटे नूरुद्दीन ने मेरी यह दुर्दशा की है। जुबैनी ने विस्तृत विवरण चाहा तो सूएखाकान ने कहा -

    'मैं आज बाजार की तरफ से निकला तो एक जगह भीड़ देखी। पूछने पर मालूम हुआ कि एक दासी बिक रही है। मुझे भी गृह-कार्य के लिए एक दासी की जरूरत थी इसलिए मैं भी रुक गया। दासी के देखने पर मुझे वह आपकी सेवा के उपयुक्त मालूम हुई इसलिए मैंने चार हजार अशर्फी पर उसका सौदा कर लिया। इतने में नूरुद्दीन आ गया और बोला कि मैं अपनी दासी तुम्हारे हाथ नहीं बेचूँगा। मैंने उसे बहुत समझाया कि मैं यह दासी अपने लिए नहीं बल्कि हाकिम के लिए खरीद रहा हूँ लेकिन उसने मेरी एक न सुनी। आपको भी भला-बुरा कहा और मुझे मार-पीट कर दासी को ले गया।

    'सरकार, आप को याद होगा कि तीन-चार बरस पहले आपने खाकान को दस हजार अशर्फियाँ एक सर्वगुण-संपन्न दासी खरीदने के लिए दी थीं। उसने इसी धन से यह दासी खरीद कर अपने बेटे को दे दी। तब से वह दासी उसी के पास है। पिता के मरने के बाद नूरुद्दीन ने अपनी सारी संपत्ति भोग-विलास में उड़ा दी। अब उसके पास अपने एक मकान और इस लौंडी के अलावा कुछ नहीं है। भूख से तंग आ कर वह अपनी उस दासी को बेच रहा था किंतु मुझ से दुश्मनी होने के कारण उसने मेरे साथ यह किया।'

    हाकिम जुबैनी को पुरानी बात याद आ गई और वह गुस्से में भर गया। उसने वजीर सुएखाकान को विदा किया और अपने एक सरदार को आज्ञा दी कि चालीस सिपाहियों को ले कर जाओ, नूरुद्दीन और उसकी दासी को बाँध कर यहाँ लाओ और उसके मकान को खुदवा कर भूमि को समतल कर दो। यह सरदार नूरुद्दीन के पिता से बड़ा उपकृत था। वह छुप कर अकेला उसके घर पर पहुँचा और उसे हाकिम की आज्ञा को बता कर कहा, यह चालीस अशर्फियाँ लो। इस समय मेरे पास इतना ही है। तुम तुरंत दासी को ले कर कहीं भाग जाओ वरना जान से हाथ धोओगे। मैं भी भागता हूँ, कोई मुझे यहाँ देख कर हाकिम से कह देगा तो मैं भी मारा जाऊँगा।

    यह कह कर सरदार उसी तरह छुप कर चला गया। इधर नूरुद्दीन ने जा कर हुस्न अफरोज को यह सब बताया और उसे ले कर मकान के पिछवाड़े की दीवार फलाँग कर नदी के तट पर भागता हुआ पहुँचा। संयोग से उसी समय एक छोटा जहाज बगदाद जाने के लिए लंगर उठा रहा था। नूरुद्दीन और दासी के सवार होते ही जहाज ने लंगर उठा दिया और बगदाद को चल पड़ा।

    उधर कुछ देर बाद वही सरदार अपने साथ सशस्त्र सैनिकों को ला कर नूरुद्दीन का दरवाजा ऐसे क्रोध से खटखटाने लगा जैसे वास्तव में उसे गिरफ्तार करने आया हो। दरवाजा न खुलने पर उसने उसे तुड़वा दिया और अंदर जा कर सिपाहियों को मकान की तलाशी लेने और नूरुद्दीन और उसकी दासी को पकड़ने की आज्ञा दी। सिपाहियों ने मकान में न कोई सामान पाया न कोई आदमी।

    उसने पड़ोसियों से पूछा कि नूरुद्दीन कहाँ है। उनमें दो-एक को मालूम था कि वह पिछवाड़े से भाग गया है किंतु सभी लोग उसे चाहते थे इसलिए बोले कि हम लोगों को बिल्कुल नहीं मालूम कि वह कहाँ गया। सरदार ने हाकिम से जा कर सारा हाल कहा तो उसने कहा कि उसका घर गिरवा कर समतल कर दो। और शहर में मुनादी करवा दो कि जो नूरुद्दीन को पकड़ कर लाएगा उसे एक हजार अशर्फियों का इनाम मिलेगा और अगर कोई उसे या उसकी दासी को शरण देगा तो उसे तथा उसके कुटुंबियों को मृत्यु-दंड दिया जाएगा। अतएव ऐसा ही किया गया।

    उधर नूरुद्दीन का जहाज बगदाद पहुँचा तो कप्तान ने यात्रियों को समझाया कि यह नगर अद्भुत है, यहाँ क्षण मात्र में गरीब अमीर बन जाता है और अमीर गरीब इसलिए यहाँ परदेशियों को सावधान रहना जरूरी है। खैर, बगदाद पहुँच कर अन्य व्यापारी तो अपने-अपने ठिकानों पर गए, नूरुद्दीन ने कप्तान को पाँच अशर्फियाँ किराए में दीं और हुस्न अफरोज को ले कर उतरा। उसके लिए यह नगर नितांत अपरिचित था और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि किस जगह ठहरे। दोनों बहुत देर तक भटकने के बाद एक बाग में पहुँचे जो नदी के तट पर था और जिसका द्वार खुला था। यहाँ बहुत देर तक बाग के कुंड में हाथ-पाँव धोने और जल पीने के बाद वे एक दालान में जा बैठे। वे दोनों बहुत थक गए थे इसलिए लेट गए और लेटते ही सो गए।

    यह बाग खलीफा हारूँ रशीद का था। वह इसमें रात को सैर के लिए आया करता था। उस बाग में रात दिन मोमबत्तियाँ जला करती थीं। उसमें एक विशाल बारहदरी थी जो इतनी ऊँची थी कि उसकी छत पर होनेवाली रोशनी सारे नगर में दिखाई देती थी। उस बारहदरी में अस्सी द्वार थे जिनके किवाड़ बिल्लौर के बने हुए थे। बाग के रक्षक का नाम शेख इब्राहिम था। उसकी अनुमति के बगैर कोई आदमी बाग में प्रवेश नहीं कर पाता था। उस दिन वह थोड़ी देर के लिए बाग का दरवाजा खुला छोड़ कर बाहर चला गया था। फिर उसे कुछ देर लग गई।

    संध्याकाल निकल आने पर शेख इब्राहीम आया तो देखा कि कुंड के समीप की दालान में दो व्यक्ति मुँह पर महीन चादरें डाले सो रहे हैं। उसे बड़ा क्रोध आया और उसने इरादा किया कि डंडा उठा कर दोनों को पीटे। फिर यह सोच कर रुक गया कि शायद ये परदेशी हों, बगैर सोचे-विचारे इन्हें दंड देना ठीक नहीं है। पहले इनसे पूछूँ कि ये यहाँ क्यों और कैसे आए। उसने दोनों के मुँह की चादरें हटाईं तो देखा कि एक से बढ़ कर एक सुंदर स्त्री पुरुष हैं। उसने नूरुद्दीन का पाँव हिला कर उसे जगाया। उसने जाग कर देखा कि एक सफेद दाढ़ीवाला बूढ़ा मौजूद है तो उसने फौरन उठ कर उसके हाथ चूमे और अदब से सलाम किया और बोला, पिताजी, मेरे लिए क्या आज्ञा है? रक्षक उसके विनय से प्रभावित हो कर बोला, बेटे, तुम कौन हो? कहाँ से आए हो? नूरुद्दीन ने कहा, हम लोग परदेशी हैं। हम यहाँ किसी को नहीं जानते। आप कृपया हमें रात भर यहाँ रहने की अनुमति दें, सवेरा होते ही हम चले जाएँगे।
    बूढ़ा और प्रभावित हुआ। कहने लगा, यहाँ सोने में तुम्हें कष्ट होगा। तुम मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें ऐसी जगह ठहराऊँगा जहाँ तुम आराम से सो सको। वहाँ से इस सारे बाग की सैर भी कर सकते हो। नूरुद्दीन ने पूछा, क्या यह बाग आप का है? उसने मुस्कुरा कर कहा, हाँ, यह मेरे बाप की जायदाद है। फिर उसने बाग की एक और आरामदह इमारत में उन्हें ठहराया जहाँ से सारा बाग दिखाई देता था। उसने उन्हें वहाँ की और भी इमारतें दिखाईं। फिर नूरुद्दीन ने रक्षक के हाथ में दो अशर्फियाँ रखीं और कहा कि इससे हम लोगों के लिए सुस्वाद भोजन मँगा दीजिए। बूढ़े ने सोचा कि बहुत अच्छा हुआ कि मैंने ऐसे धनी और सुसंस्कृत आदमी को नहीं मारा। इन अशर्फियों से तो बढ़िया से बढ़िया खाना लाने पर भी मेरे पास बहुत-कुछ बचा रहेगा। अतएव वह उन्हें बाग की बारहदरी में बिठा कर भोजन लाने चला गया। इधर नूरुद्दीन ने चाहा कि ऊपर जा कर सैर करे किंतु जा कर देखा कि जीने में ताला जड़ा था।

    बाग का रक्षक भोजन लाया तो नूरुद्दीन ने कहा कि हम ऊपर जा कर भी देखना चाहते हैं, क्या आप हमें दिखा सकेंगे? दरोगा ने ताली निकाल कर ताला खोल दिया। वे दोनों ऊपर जा कर बहुत खुश हुए। नूरुद्दीन ने कहा कि आप कृपा कर के हम लोगों को यहीं सोने की अनुमति दे दीजिए।

    उसने यह भी कहा कि आप भी हमारे साथ भोजन करें और यहीं आराम करें। बूढ़े ने सोचा कि आज खलीफा तो आनेवाले हैं नहीं, आनेवाले होते तो अब तक संदेश भिजवा देते। उसने यह भी सोचा कि ऐसे उदार आदमी की बात नहीं टालनी चाहिए। इसलिए वह न केवल उन्हें स्थान देने पर राजी हो गया अपितु उसने खलीफा के लिए रखे हुए जड़ाऊ बरतनों में उन्हें भोजन परोसा। सब लोग खाना खा कर हाथ धो चुके तो नूरुद्दीन ने कहा, कुछ पीने को भी मिल सकता है?

    रक्षक ने कहा, मैं शरबत ला सकता हूँ लेकिन शरबत खाने के पहले पिया जाता है, बाद में नहीं। नूरुद्दीन बोला, आप ठीक कहते हैं लेकिन मेरा मतलब शरबत से नहीं था, अंगूरी शराब से था। उद्यान-रक्षक ने कहा, देखो इस्लाम में शराब हराम है। फिर मैं तो चार बार हज कर आया हूँ, मैं तो शराब पीना क्या उसे हाथ से भी नहीं छू सकता। बल्कि मैंने कभी शराब देखी भी नहीं है। नूरुद्दीन ने कहा, मैं एक तरकीब बताता हूँ। बाग की खाई के पास एक गधा बँधा है। उसे ले आइए। मैं रूमाल में एक अशर्फी बाँध कर उसकी पीठ पर रख दूँगा। आप उसे हाँकते हुए शराबखाने तक ले जाएँ और शराबखाने के मालिक को इशारे से अशर्फी दिखा दें। वह समझ जाएगा और अशर्फी ले कर शराब की मटकियाँ गधे पर लाद देगा। फिर आप गधे को यहाँ ले आएँ। यहाँ हम वे पात्र उतार लेंगे। आपको शराब छूने या मुँह से माँगने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

    बूढ़े को इसमें कोई बुरी बात नहीं दिखाई दी। उसने वही किया जो नूरुद्दीन ने कहा था। गधे के वापस आने पर नूरुद्दीन ने मटकियाँ गधे से उतार कर रखीं और बूढ़े से कहा, आपने हम लोगों पर बड़ी कृपा की है, अब थोड़ी और दया कीजिए। दो-तीन गिलास और शराब के साथ खाने के लिए कुछ फल ले आइए। बाग के रक्षक दारोगा ने यह चीजें भी ला कर दीं और साफ कपड़ा जमीन पर बिछा कर उस पर फल काट कर तश्तरियों में रख दिए और गिलास भी। यह कर के वह कुछ दूर जा बैठा ताकि कहीं यह लोग मुझ से भी मदिरा पान के लिए न कहें।

    जब दोनों को शराब पी कर नशा आ गया तो नूरुद्दीन ने हुस्न अफरोज से कहा कि हम लोग कितने भाग्यवान हैं कि इस निपट अनजाने शहर में भी हमें ऐसी सुंदर जगह ठहरने को मिली है। फिर वे दोनों गाने लगे। उनका गाना सुन कर दारोगा खुश हुआ और कुछ पास आ कर गाना सुनने लगा। नूरुद्दीन ने उससे कहा, दारोगा साहब, आप बहुत अच्छे आदमी हैं। आप भी हमारे इस आनंद में शामिल हो जाएँ। मैं आपकी प्रशंसा में कसीदा सुनाऊँगा। दारोगा ने हँस कर कहा, आप दोनों के आनंद से मुझे काफी आनंद आ रहा है, अब और आनंद क्या चाहिए। यह कह कर वह फिर दूर जा बैठा।

    हुस्न अफरोज ने नूरुद्दीन से कहा, आप कहें तो में इस बूढ़े कर्मकांडी को भी शराब पिला दूँ।

    उसने कहा, ऐसा हो जाए तो बड़ा मजा आएगा। हुस्न अफरोज बोली, आप उसे बुला कर अपने हाथ से शराब का गिलास दें। वह पी ले तो ठीक है वरना आप खुद उस गिलास को पी कर चारपाई पर लेट कर सोने का बहाना करना। फिर देखो मैं इसे किस तरह राह पर लाती हूँ। नूरुद्दीन ने यह मान लिया।

    नूरुद्दीन ने दारोगा को आवाज दे कर कहा, बुजुर्गवार, यह अच्छा नहीं लगता कि आप जीने में बैठे रहें और हम यहाँ चाँदनी का आनंद लें। हम कोई जबरदस्ती तो आपको पिला नहीं देंगे। आप कृपया यहाँ आ कर इस सुंदरी के बगल में बैठें। बूढ़ा यह सुन कर खुश तो हुआ कि ऐसी सुंदरी के पास बैठने को मिलेगा किंतु प्रकटतः नाक-भौं चढ़ाता हुआ आया और हुस्न अफरोज के बगल में बैठ गया। नूरुद्दीन ने इशारा किया तो हुस्न अफरोज ने सुंदर गाना आरंभ किया। गाना खत्म होने पर नूरुद्दीन ने एक गिलास भर कर दारोगा को दिया और कहा कि अगर आप गाने से खुश हैं और इसका इनाम देना चाहते हैं तो यह गिलास तो पी ही लें।

    बूढ़े ने कहा, मैं पहले ही आपको अपनी मजबूरी बता चुका हूँ। वरना आपकी बात क्यों टालता? नूरुद्दीन ने कहा, जैसी आपकी इच्छा। यह कह कर वह गिलास को खुद पी गया। अब हुस्न अफरोज ने एक सेब के दो टुकड़े किए और एक टुकड़ा वृद्ध की ओर बढ़ा कर बोली, शराब नहीं पीते तो फल तो लीजिए, इसे खाने से तो धर्म नहीं रोकता। बूढ़े ने धन्यवाद सहित सेब ले लिया और उसे खाने लगा। हुस्न अफरोज ने फिर गाना शुरू किया। अब बूढ़े पर हुस्न अफरोज का जादू चढ़ने लगा था। नूरुद्दीन पलंग पर जा कर सोने का बहाना करने लगा।

    गाना खत्म होने पर हुस्न अफरोज ने शिकायत के स्वर में बूढ़े से कहा, देखिए, इनकी कैसी बुरी आदत है। दो गिलास पी कर ही नींद की गोद में चले जाते हैं। मैं अकेली रह जाती हूँ। अब कृपया आप मुझे अकेला न छोड़ें, मेरे और पास आ कर बैठ जाएँ। बूढ़ा तो उसके नयन-शर से पहले ही बिंध चुका था, वह उसके पास जा बैठा। हुस्न अफरोज समझ गई कि अब इसे पिलाई जा सकती है। उसने शराब का एक गिलास भर कर उसकी ओर बढ़ा कर कहा, देखिए, आपको मेरे सिर की कसम है, इससे इनकार न कीजिए। इसके पीने से जो पाप आप पर पड़ेगा वह मैं अपने सिर लेती हूँ। यह कह कर उसने हाव-भाव के साथ गिलास उसके मुँह से लगा दिया। बूढ़ा उसे पी गया और बचा हुआ आधा सेब भी खा गया। हुस्न अफरोज ने दूसरा गिलास बढ़ाया तो उसने बगैर हिचके पी लिया। इसके बाद उसे नशा चढ़ा तो वह खुद अपने हाथ से भर-भर कर कई गिलास पी गया। इतने में नूरुद्दीन भी पलँग से उठ कर आया और मुस्कुरा कर बोला, बड़े मियाँ, तुम तो बड़े परहेजगार थे, अब क्या हो गया। बूढ़ा ठठा कर हँसा और कहने लगा, मैंने पी कहाँ है, यह तो तुम्हारी साथिन ने जबर्दस्ती मुझे पिलाई है। इसी तरह वे लोग हँसी-खुशी के साथ आधी रात तक बैठे-बैठे मदिरापान करते रहे।
    जब दारोगा को काफी नशा चढ़ गया तो हुस्न अफरोज ने कहा कि अब अँधेरा डरावना लगता है, कहो तो शमादान (मोमबत्तियों के पात्र) जला दूँ। बूढ़े ने कहा, अच्छा, यही चाहती हो तो जला लो लेकिन दो-चार ही जलाना। किंतु हुस्न अफरोज ने वहाँ के सारे ही शमादान जला दिए।

    बूढ़ा नशे में था और हुस्न अफरोज के सौंदर्य से मस्त भी। उससे हुस्न अफरोज ने पूछा, कहिए तो जीने के शमादान भी जला दूँ ताकि किसी आने-जानेवाले को कष्ट न हो। बूढ़े ने बगैर समझे-बूझे इस की भी अनुमति दे दी। वह इस समय हुस्न अफरोज की हर बात मानने को तैयार था।

    खलीफा हारूँ रशीद उस दिन देर तक राज-काज में लगा रहा था। आधी रात को उसकी इच्छा हुई कि बाग में जा कर थकन मिटाए। महल से उसने देखा तो बाग की बारहदरी के ऊपर प्रकाश-पुंज दिखाई दिया क्योंकि हुस्न अफरोज ने सारे शमादान जला दिए थे। उसने अपने मंत्री जाफर से कहा, समझ में नहीं आता। मैं तो यहाँ हूँ, इस बाग की बारहदरी में रोशनी किसने करवाई है। जाफर की समझ में भी कुछ न आया लेकिन वह दिल का अच्छा आदमी था। बाग के दारोगा को बचाने के लिए झूठ बोल गया, बाग के दारोगा ने एक मानता मानी थी और कहा था कि यह पूरी होगी तो अपने मित्रों को दावत दूँगा। उसने आज दावत दी होगी।

    खलीफा को इस बात पर विश्वास न हुआ, उसने खुद भी साधारण नागरिक के वस्त्र पहने और जाफर तथा अपने प्रधान अंगरक्षक मसरूर को भी पहनवाए और उन दोनों को ले कर चुपके से बाग की ओर चला। वहाँ जा कर देखा कि बाग का बाहरी द्वार खुला है। उसे दारोगा की असावधानी पर रोष हुआ और वह कहने लगा कि यह दरवाजा क्यों खुला है? जाफर इसका क्या जवाब देता। फिर खलीफा इन लोगों को बाग में बिठा कर खुद चुपचाप जीने पर चढ़ कर छत का तमाशा देखने लगा। उसने देखा कि एक अति सुंदर युवक के साथ एक अनिंद्य सुंदरी बैठी है और दारोगा शराब का गिलास उस स्त्री को देते हुए कह रहा है, हे परमसुंदरी, मैंने अभी जी भर कर तुम्हारा गाना नहीं सुना। एक गाना सुनाओ। इसके बाद मैं भी तुम्हें गाना सुनाऊँगा। किंतु वह स्त्री का गाना सुनने के बजाय खुद गाने लगा। स्पष्ट था कि उसे गाना नहीं आता था, यूँ ही रेंक रहा था।

    खलीफा को यह देख कर आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि इस दारोगा को क्या हो गया, यह तो बड़ा सदाचारी था। वह चुपके से उतरा और मंत्री जाफर को साथ ला कर उसे इशारे से दिखाया कि यहाँ क्या हो रहा है। उसने कहा, सरकार, मैं तो कुछ समझ नहीं पाया। खलीफा ने कहा, मैं इन सब को कड़ा दंड दूँगा किंतु यदि इस सुंदरी ने अच्छा गाया तो क्षमा कर दूँगा। वे दोनों छुप कर सुनने लगे। बूढ़े ने कहा, कुछ ऐसा गाओ कि जी खुश हो जाए। हुस्न अफरोज बोली, यहाँ बाँसुरी होती तो मैं वह गाना सुनाती कि तुम भी याद करते। अगर मिल सके तो बाँसुरी लाओ।

    बूढ़ा झूमता हुआ उठा और एक कोठरी खोल कर उसमें से बाँसुरी निकाल लाया। हुस्न अफरोज बाँसुरी बजाने लगी। खलीफा ने मंत्री से कहा, यह स्त्री तो बड़ी अच्छी बाँसुरी बजाती है। इस कारण मैंने इसका अपराध क्षमा किया और उसके कारण उसके साथी को भी। किंतु बूढ़े की हरकत प्रशासन की बात है और तुम्हारी जिम्मेदारी है, इसलिए तुम जरूर फाँसी पाओगे। मंत्री ने कहा, भगवान करता कि वह बुरा बजाती। खलीफा ने कहा, तुम यह बात क्यों कर रहे हो।

    मंत्री बोला, अगर ऐसा होता तो यह दोनों मारे जाते और इन दोनों के साथ मरने में सुख मिलता। खलीफा इस चतुराई के उत्तर से हँस पड़ा।

    हुस्न अफरोज ने बार-बारी से बाँसुरी और गले से वही राग निकाला तो खलीफा लोट-पोट हो गया। वह संगीत का अच्छा मर्मज्ञ था। उसने इस डर से कि जीने ही में कहीं उससे वाह-वाह न निकल जाए, मंत्री के साथ चुपचाप नीचे उतर आया और बोला, भाई, यह स्त्री तो गाने और बजाने दोनों में अद्वितीय है। हमारा दरबारी गवैया गाने- बजाने में विश्वविख्यात है किंतु इसके सामने वह अनाड़ी बच्चा मालूम होता है। मैं चाहता हूँ कि पास से जा कर इसका गायन-वादन सुनूँ किंतु मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि यह बात कैसे हो।

    मंत्री ने कहा, आपकी बात बिल्कुल ठीक है। अगर आप उन लोगों के सामने गए तो दारोगा आपको इन साधारण वस्त्रों में भी पहचान लेगा और डर के मारे ही मर जाएगा। और यह दोनों भी आप के डर से गाना-बजाना भूल जाएँगे। खलीफा ने कुछ सोच कर कहा, तुम मसरूर के साथ बाग में बैठो। मैं बाहर जा रहा हूँ। मेरे लौटने तक प्रतीक्षा करो।

    खलीफा ने बाग से निकलते ही देखा कि एक मछवाहा चार-पाँच बड़ी-बड़ी मछलियाँ ले कर नदी की ओर से आ रहा है। खलीफा ने उसे रोक कर कहा कि मुझे दो अच्छी मछलियाँ बेच दो। मछवाहे ने खलीफा को साधारण वस्त्रों में भी पहचान लिया और डर के मारे काँपने लगा। खलीफा ने कहा, तुम डरो नहीं। मैं तुम्हें अच्छा इनाम दूँगा। लेकिन तुम मेरे यह कपड़े पहन लो और अपने कपड़े मुझे दे दो और चुपचाप घर चले जाओ। उसने ऐसा ही किया। खलीफा उसके कपड़े पहन कर दो बड़ी मछलियाँ ले कर बाग में आ गया।

    जाफर और मसरूर उसे इस वेश में देख कर पहचान न सके। मंत्री ने समझा कि यह मछवाहा बेवक्त कुछ इनाम माँगने आया है। उसने झिड़क कर उससे भाग जाने के लिए कहा। इस पर खलीफा खिलखिला कर हँस पड़ा। अब मंत्री ने गौर से देखा तो उसे पहचान गया और क्षमा माँगने लगा कि आपको पहचान न पाने पर ऐसी भूल हुई। उसने कहा, जब मैं ही इस वेश में आपको पहचान नहीं सका तो और कोई क्या पहचानेगा। अब आप बेधड़क बारहदरी की छत पर जाएँ और जी भर कर उस सुंदरी का गाना सुनें।

    खलीफा मछवाहे के वेश में और दो मछलियाँ लिए हुए ऊपर गया और दरवाजा खटखटाया। दारोगा ने पूछा, कौन है? खलीफा ने दरवाजा खोल कर बहुत झुक कर सलाम किया ताकि पहचाना न जाए। फिर वह बोला, मैं करीम मछवाहा हूँ। मैंने सुना है कि आपने अपने मित्रों की दावत की है। इसलिए मैं आपकी सेवा में दो बहुत ही उत्तम मछलियाँ लाया हूँ ताकि आप मेहमानों को भली भाँति संतुष्ट कर सकें। दारोगा ने नशे में खलीफा को बिल्कुल न पहचाना और बोला, तुम मछवाहे हो या चोर? रात में इस तरह घूमते हो? खैर, यहाँ आओ और दिखाओ कि क्या लाए हो।

    खलीफा मछलियाँ ले गया तो हुस्न अफरोज को वे पसंद आईं। उसने दारोगा से कहा कि इन्हें भुनवा दीजिए तो मजा आ जाए। दारोगा ने हुक्म दिया, करीम, फौरन बावरचीखाने में जाओ और यह मछलियाँ भून लाओ। खलीफा बोला, बहुत अच्छा सरकार। यह कह कर नीचे आया और जाफर और मसरूर से कहा कि इन मछलियों को साफ कर के भूनना है। जाफर पाक-शास्त्र में निपुण था। चुनांचे तीनों बावरचीखाने में गए और तेल, मसाला आदि ढूँढ़ कर मछलियों को साफ कर के उन्हें अच्छी तरह प्रकार से भूना। उन्होंने कुछ नींबू भी काट कर मछली के टुकड़ों के साथ थालियों में सजा दिए और उन्हें ऊपर ले गए। उन तीनों ने स्वाद ले ले कर मछलियाँ खाईं क्योंकि जाफर ने बहुत स्वादिष्ट मछलियाँ बनाई थीं। हुस्न अफरोज ने कहा, वास्तव में मैंने जीवन में ऐसी स्वादिष्ट मछलियाँ नहीं खाई थीं। नूरुद्दीन को भी मछलियाँ पसंद आईं। फिर हुस्न अफरोज की प्रशंसा से उस पर और असर पड़ा। उसने अशर्फियों की थैली निकाली और मछवाहा बने हुए खलीफा को दे कर कहा, देखो भाई, मेरे पास जो कुछ था वह सब मैंने तुम्हें दे डाला। काश, तुम मेरे पास पहले आए होते जब मैं वास्तव में इनाम देने की हालत में था। तब तुम देखते कि में किस तरह खुश होने पर इनाम दिया करता हूँ। अभी जो मिला है उसी से संतोष करो।

    खलीफा ने थैली खोली तो देखा कि उसमें चौबीस अशर्फियाँ हैं। उसे आश्चर्य हुआ कि यह कौन ऐसा मनचला है कि पकी हुई मछलियों के लिए चौबीस अशर्फियाँ दिए डाल रहा है। उसने कहा, मालिक, भगवान आप को युगों-युगों तक कुशलतापूर्वक और प्रसन्नतापूर्वक रखे। मैंने अपने सारे जीवन में आप जैसा दानवीर नहीं देखा। अब आप नाराज न हों तो एक निवेदन करूँ। मैंने आपकी सुंदरी साथिन के पास बाँसुरी रखी देखी है। मालूम होता है कि इसे बाँसुरी बजाने का शौक है। मुझे भी संगीत सुनना बहुत अच्छा लगता है। आप आज्ञा दें तो मैं भी दो मिनट बैठ कर इनकी वादन कला देख लूँ और फिर आप लोगों को आशीर्वाद देता हुआ अपने घर चला जाऊँ।
    नूरुद्दीन उदारता की धुन में तो था ही। उसने हुस्न अफरोज से कहा, चलो इस बेचारे को भी कुछ सुना दो। इसे कहाँ गाना-बजाना सुनने को मिलता होगा। हुस्न अफरोज पर भी शराब का नशा खूब चढ़ा था, साथ ही सुस्वादु मछलियाँ खा कर वह भी बहुत प्रसन्न थी। उसने सोचा कि मैं अपना पूरा कमाल दिखाऊँ। उसने बाँसुरी उठाई और एक साथ ही बाँसुरी और मुँह से एक ही राग इस कौशल के साथ निकाला कि दोनों में एक स्वर का भी अंतर नहीं था। खलीफा ने बहुत प्रशंसा की। फिर उसने खाली बाँसुरी पर एक बड़ा कठिन राग निकाला।

    खलीफा ने जी खोल कर प्रशंसा की। उसने कहा, मालिक, मैंने ऐसी गुणवंती नारी कभी नहीं देखी। इनमें संगीत निपुणता भी है और अमृत जैसा कंठ भी। ऐसा गुणज्ञ संसार भर में कोई न होगा। आप धन्य हैं कि आपको ऐसी अनिंद्य सुंदरी और ऐसी गुणवंती साथिन मिली है।

    नूरुद्दीन की आदत थी कि अगर कोई उसकी चीज की बहुत प्रशंसा करता था तो वह चीज उसी को दे देता था। हुस्न अफरोज उसकी दासी थी। उसने कहा, अगर यह नारी तुम्हें ऐसी ही पसंद है तो इसे ले जा सकते हो। मैंने इसे तुम्हें दे डाला। तुम संगीत मर्मज्ञ जान पड़ते हो, इसकी अच्छी कद्र करोगे।

    हुस्न अफरोज को बड़ी परेशानी हुई कि ऐसे सुंदर मालिक के बजाय मछवाहे के साथ रहना पड़ेगा। नूरुद्दीन उठ कर चलने लगा था। हुस्न अफरोज ने आँसू भर कर कहा, मालिक, चलते-चलते मेरा एक और गीत तो सुनते जाओ। नूरुद्दीन रुक गया। हुस्न अफरोज ने छुप कर आँसू पोंछे और एक सद्यःरचित वियोग गीत गाने लगी जिसका अर्थ यह था कि मुझे अपने पास ही रखो, मछवाहे के हाथ में न दो। नूरुद्दीन ने उसका भाव तो समझ लिया किंतु वह विवश हो कर चुप बैठा रहा, दी हुई चीज के लिए कैसे कहता कि मैं इसे नहीं दूँगा।

    खलीफा ने आश्चर्य से पूछा, यह स्त्री आपकी दासी है? उसके स्वर में सहानुभूति पाई तो नूरुद्दीन ठंडी साँस भर कर कहने लगा, करीम, तुम इतने पर क्या आश्चर्य करते हो। मेरी पूरी कहानी सुनो तो वास्तव में आश्चर्य में पड़ जाओगे। यह कह कर उसने सारा किस्सा उसे बताया।

    मछवाहे बने हुए खलीफा ने कहा, अब आप कहाँ जाएँगे, क्या करेंगे? नूरुद्दीन ने कहा, जो भी भगवान चाहेगा वही होगा। खलीफा ने कहा, आप कहीं न जाएँ, वापस बसरा चले जाएँ। मैं वहाँ के हाकिम को एक छोटा-सा पत्र लिखे देता हूँ। वह जुबेनी को दे देना। इसके बाद तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएँगे।

    नूरुद्दीन ठठा कर हँस पड़ा। बोला, भाई, तेरा दिमाग तो ठीक है? कहाँकहाँ राजा और कहाँ रंक।। जुबैनी तेरे पत्र पर क्या ध्यान देगा? खलीफा ने कहा, आप जानते नहीं। जुबैनी मेरा बचपन का साथी है। वह कई बार मुझे मंत्री बनाने के लिए बुला चुका है किंतु मैं उसका अहसान लेने के बजाय पैत्रिक धंधा करना पसंद करता हूँ। नूरुद्दीन इस पर पत्र लेने को तैयार हो गया। खलीफा ने कलम और कागज ले कर इस प्रकार का पत्र लिखा :

    मैं मेहँदी का पुत्र खलीफा हारूँ रशीद अपने चचेरे भाई जुबैनी को, जो बसरा का हाकिम है, यह आदेश देता हूँ कि इस पत्र को देखते ही मंत्री खाकान के पुत्र नूरुद्दीन को, जिसके हाथों यह पत्र जा रहा है, अपनी जगह बसरा का हाकिम बनाओ और शासन की कुरसी पर बिठाओ। इस आज्ञा का रंचमात्र भी उल्लंघन नहीं होना चाहिए। यह लिख कर खलीफा ने पत्र बंद किया और जाफर को दिया। उसने चुपचाप खलीफा की मुहर उस पर लगा दी। फिर वह पत्र नूरुद्दीन को दे दिया।

    यह ज्ञात रहे कि खलीफा जिस समय मछली भूनने गया था उसी समय उसने मसरूर से कहा था कि मेरे लिए राजमहल से राजसी पोशाक ले आना। वह पोशाक आ गई थी। खलीफा ने यह भी कहा था कि तुम जीने पर प्रतीक्षा करना और जब मैं जीने के दरवाजे पर हाथ मारूँ तो तुम सिपाहियों के साथ पोशाक ले कर छत पर आ जाना।

    इधर बूढ़ा दारोगा नशे की हालत में यह सब देख रहा था। नूरुद्दीन जब पत्र ले कर गया तो हुस्न अफरोज भी उसके पीछे रोती हुई जीने के दरवाजे तक गई और फिर लौट आई। दारोगा ने खलीफा से कहा, करीम, तू एक-दो कौड़ी का मछवाहा है। तेरी दो मछलियों का मूल्य दो-चार आने से अधिक नहीं। इनके बदले में तूने इतनी अशर्फियाँ और ऐसी सुंदर और गुणवंती दासी पाई। तू यह सब अकेले हजम नहीं कर सकेगा। इनमें से आधा मुझे दे दे वरना मैं तुझे बड़ी मुसीबत में फँसा दूँगा। खलीफा ने कहा, मुझे थैली में नहीं मालूम अशर्फियाँ हैं या कुछ और। चलो जो भी होगा आधा-आधा बाँट लेंगे। लेकिन तुम इस लौंडी में हिस्सा पाने की आशा छोड़ दो। यह मुझे मिली है और मैं इसे अपने पास रखूँगा। अब इसमें चाहे आप खुश हों या नाखुश।

    दारोगा नशे में तो था ही, तथाकथित मछवाहे की इस बात पर उसे इतना क्रोध आया कि उसने एक चीनी की तश्तरी फेंक कर खलीफा के सर पर मारी। खलीफा सिर टेढ़ा कर के चोट से बच गया और तश्तरी दीवार से टकरा कर टूट गई। दारोगा इस बात से और आगबबूला हुआ और रोशनी ले कर एक कोठरी में गया ताकि वहाँ से लकड़ी ला कर मछवाहे को मारे। इसी बीच खलीफा ने जीने के किवाड़ पर हाथ मारा। इस पर मसरूर और चार गुलाम छत पर आ गए। वहाँ एक छोटा सिंहासन भी पड़ा था। खलीफा राजसी वस्त्र पहन कर उस पर जा बैठा और उसके पीछे चारों गुलाम और बगल में एक ओर जाफर और दूसरी ओर मसरूर खड़े हो गए। बारहदरी की छत पर छोटा-मोटा दरबार लग गया।

    उधर बूढ़ा एक मोटी लाठी ले कर आया और मछवाहे को ढूँढ़ने लगा। उसे मछवाहा न दिखाई दिया बल्कि खलीफा तख्त पर बैठा दिखाई दिया। वह आँखें मल-मल कर देखने लगा कि यह स्वप्न है या सत्य। कुछ क्षणों के बाद खलीफा बोला, बड़े मियाँ, क्या बात है? क्यों घबराहट में इधर-उधर देख रहे हो? अब बूढ़े ने पहचाना कि खलीफा ही मछवाहा बना हुआ था। वह उसके पाँवों पर गिर पड़ा और अपनी दाढ़ी खलीफा की जूतियों पर मल-मल कर अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगा। खलीफा ने कहा, तुम्हारे एक नहीं, कई अपराध हैं। बाग को खुला छोड़ दिया, अजनबियों के साथ शराब पी, दूसरे को मिली चीज में हिस्सा बँटाने लगे और न मिलने पर मार-पीट पर उतारू हो गए। लेकिन मुझे तुम्हारे बुढ़ापे और तुम्हारे सारे जीवन के सदाचार का ख्याल है इसलिए मैं तुम्हारे सारे अपराध क्षमा करता हूँ। लेकिन आगे से होशियार रहना।

    अब हुस्न अफरोज समझ गई कि यह बाग का मालिक स्वयं खलीफा है। उसे इस बात से बड़ा संतोष मिला कि किसी मछवाहे के हाथ नहीं दी गई। खलीफा ने उससे कहा, अब तो तुम्हें मालूम ही हो गया होगा कि मैं कौन हूँ। मैंने संसार भर में नूरुद्दीन से बढ़ कर बड़े दिलवाला कोई आदमी नहीं देखा जो केवल प्रशंसा करने पर अपनी सब से प्यारी चीज दे डाले। मैंने पत्र द्वारा उसे बसरा का हाकिम नियुक्त किया है। जब वह अपना काम सँभाल लेगा तो मैं तुम्हें भी उसके पास भेज दूँगा। तब तक तुम मेरे महल में रहोगी। यह सुन कर हुस्न अफरोज की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। खलीफा उसे ले कर महल में आया। दूसरे दिन उसने हुस्न अफरोज को अपनी रानी जुबैदा के हाथ में सौंपा और कहा कि इसका ख्याल रखना, यह बसरा के नए हाकिम नूरुद्दीन की स्त्री है और कुछ दिनों बाद इसे उसी के पास भेजना है।

    इधर नूरुद्दीन एक जहाज में बैठ कर, जो उसी समय छूट रहा था, बसरा पहुँचा और अपने किसी मित्र या परिचित से मिले बगैर सीधे हाकिम जुबैनी के पास पहुँचा। वह उस समय मुकदमों के फैसले कर रहा था। नूरुद्दीन बेधड़क उसके पास पहुँचा और कहा, आपके पुराने मित्र ने यह पत्र आप के लिए दिया है। जुबैनी ने खलीफा की हस्तलिपि देख कर पत्र को चूमा और मंत्री सूएखाकान से उसे पढ़ने के लिए कहा। मंत्री ने पत्र देखा तो उसकी जान निकल गई। उसने प्रकाश में अच्छी तरह पत्र पढ़ने के बहाने बाहर आ कर खलीफा की मुहरवाला लिफाफे का भाग दाँतों से कुतर कर खा लिया। वापस दरबार में आ कर कहा कि इस पत्र में नूरुद्दीन को बसरा का हाकिम बनाने को लिखा है किंतु यह पत्र जाली मालूम होता है। उसने कहा, सरकार, मुझे ऐसा मालूम होता है कि नूरुद्दीन ने मुझसे और आपसे अपने अपमान का बदला लेने के लिए यह ढोंग रचा है। इसने खलीफा से हम लोगों की शिकायत जरूर की होगी किंतु खलीफा बच्चा तो है नहीं जो बहकावे में आ जाए। वह ज्यादा से ज्यादा यह लिखता कि इसे दंड न दो या कोई नौकरी दे दो। ऐसे निठल्ले आदमी को वह बसरे का हाकिम किस तरह बना देगा?

    उसने यह भी कहा कि आप नूरुद्दीन को मेरे सुपुर्द कर दीजिए, मैं खोज कर के असल तथ्य का पता लगाऊँगा। जुबैनी भी क्यों आसानी से अपना पद देता। उसने सूएखाकान की बात मंजूर कर ली। सूएखाकान नूरुद्दीन को अपने भवन में लाया। वह उसकी जान का प्यासा हो ही रहा था। चुनांचे उसने नूरुद्दीन को इतना पिटवाया कि वह बेहोश हो कर गिर गया और मरने के समीप हो गया। फिर उसने उसे एक तंग कोठरी में बंद कर दिया और उस पर कड़ा पहरा बिठा दिया और आदेश दिया कि इसे दिन में सिर्फ एक बार कुछ रोटी के टुकड़े और पानी दिया जाए, इससे अधिक कुछ न दिया जाए।

    नूरुद्दीन को होश आया तो देखा कि उसे एक सीली, दुर्गंधपूर्ण और ऐसी तंग कोठरी में बंद किया गया है जिसमें वह हिल-डुल भी नहीं सकता। उसे यह तो मालूम ही नहीं था कि जुबैनी के नाम पत्र में क्या लिखा था। वह रो-रो कर कहने लगा, वाह रे मछवाहे! मैंने तो तुझे अपना सब कुछ दे डाला। अशर्फियों के साथ अपनी प्राणों से भी प्यारी दासी भी दे डाली। और तूने मेरे इस उपकार का बदला इस प्रकार दिया। भगवान तुझे तेरी इस दुष्टता के लिए कभी क्षमा नहीं करेगा। मैं भी कैसा नादान हूँ कि उस मछवाहे के कहने में आ गया।

    सूएखाकान ने नूरुद्दीन को छह दिन तक ऐसे ही कष्ट में रखा। वह चाहता तो था कि नूरुद्दीन का प्राणांत हो जाए किंतु उसकी हिम्मत उसे अपने घर में मारने की नहीं हो रही थी, वह उसे हाकिम ही से मृत्युदंड दिलाना चाहता था। सातवें दिन उसने अच्छी-अच्छी चीजों की टोकरियाँ नौकरों के सिर पर लदवाईं और जुबैनी के सामने पेश कीं। उसने पूछा यह क्या है, तो सूएखाकान ने कुटिलतापूर्वक कहा, यह बसरे के नए हाकिम ने आप के पास भेजा है ताकि इनके बदले आप उसे बसरे का हाकिम बनाएँ। इससे जुबैनी को बड़ा गुस्सा आया। उसने कहा, वह अभी जिंदा है? मैंने समझा था कि तुमने उसे मार डाला होगा। मंत्री ने कहा, मुझे किसी को प्राणदंड देने का अधिकार नहीं है। जुबैनी ने कहा, मैं आज्ञा देता हूँ कि तुम उसकी गर्दन उतारो। कमबख्त मुझसे मजाक करता है? सूएखाकान ने कहा, आपकी आज्ञा सिर-आँखों पर किंतु मैं चाहता हूँ कि वह सर्वसाधारण के सामने मारा जाए, तभी मैं उससे उस सार्वजनिक अपमान का बदला लूँगा जो उसने किया है।

    जुबैनी ने मान लिया। शहर में मुनादी की गई कि कल नूरुद्दीन की, जिसने मंत्री का खुलेआम अपमान किया था, अमुक स्थान पर गरदन काटी जाएगी। सुएखाकान उसे अत्यंत अपमानपूर्वक अंधे, बेजीन के घोड़े पर बिठा कर वधस्थल पर लाया। नूरुद्दीन ने कहा, बुड्ढे खबीस, तू मुझ निर्दोष को झूठ और छल से अपमानपूर्वक मरवा रहा है। मगर याद रखना कि भगवान निर्दोष व्यक्ति का खून बहानेवाले आदमी को कभी क्षमा नहीं करता। सूएखाकान दाँत पीस कर बोला, दुष्ट, तू इस तरह से मेरा सब लोगों के सामने अपमान कर रहा है? खैर, इसकी सजा क्या दी जाए। तुझे तो सबसे बड़ी सजा मिलनेवाली है।

    नूरुद्दीन को महल से लगे एक बड़े मैदान में पहुँचा दिया गया जहाँ लोगों को आम जनता के सामने मारा जाता था। जल्लाद ने कहा, मुझे आपके पिता का जमाना याद है। मैं आपका सेवक हूँ किंतु इस समय मेरा कर्तव्य आपको मारना है। आपकी कुछ अंतिम इच्छा हो तो कहें। नूरुद्दीन ने कहा कि मुझे पानी पीना है। जल्लाद ने एक आदमी से पानी मँगाया और नूरुद्दीन पीने लगा।

    सूएखाकान जल्लाद पर बिगड़ने लगा कि देर क्यों कर रहा है, तुरंत ही इसकी गरदन क्यों नहीं काट देता। जो लोग वहाँ मौजूद थे वे मंत्री की कठोरता पर उसे बुरा-भला कहने लगे किंतु उस पर कुछ प्रभाव न हुआ। जल्लाद ने देखा कि मंत्री नाराज हो रहा है तो उसने तलवार निकाली। वह वार करना ही चाहता था कि जुबैनी ने महल की खिड़की से सिर निकाल कर कहा, अभी इसे न मारो। मुझे दिखाई देता है एक बड़ी फौज चली आ रही है, पहले मालूम तो हो कि यह क्या मामला है। सूएखाकान चाहता था कि नूरुद्दीन जल्दी से जल्दी मारा जाए। उसने कहा, यह धूल तो उन लोगों के आने से उठी है जो इस पापी के मारने का तमाशा देखने आ रहे हैं। आप जल्लाद को आज्ञा दें कि वह तुरंत अपना काम करें। जुबैनी बोला, नहीं, यह सेना ही है। अभी जल्लाद हाथ रोके रहे। मैं पहले पता तो लगाऊँ कि कौन आ रहा है।

    हुआ यह था कि हुस्न अफरोज को अपनी मलिका के पास भेज कर खलीफा उसके और नूरुद्दीन के बारे में भूल गया था। दो-चार दिन बाद उसने अपने महल में एक दुखभरे गाने की आवाज सुनी।

    उसे आश्चर्य हुआ कि इतना दुखी हो कर कौन गा रहा है। पुछवाया तो सेवकों ने बताया कि यह नूरुद्दीन की दासी है जिसे आपने आश्रय दिया था, वही नूरुद्दीन के वियोग में विरह-गीत गा रही है। मंत्री जाफर को बुला कर कहा, नूरुद्दीन के मामले में देर नहीं होनी चाहिए। तुम मेरी सनद और हुक्मनामा ले कर फौज के साथ खुद जाओ। अगर सूएखाकान ने दुरभिसंधि कर के नूरुद्दीन को मरवा डाला हो तो तुम फौरन उसे मरवा डालना। अगर नूरुद्दीन जिंदा हो तो तुरंत उसे और जुबैनी को मेरे पास ले आओ। मैं इस संबंध में सारे फरमान लिखवा कर देता हूँ।

    नूरुद्दीन के सौभाग्य से जाफर ठीक उसी समय पहुँचा जब जल्लाद नूरुद्दीन को मारने ही वाला था। उसकी सेना नगर में आई तो लोगों ने सत्कारपूर्वक उसे रास्ता दिया। जाफर जुबैनी के दरबार में पहुँचा। जुबैनी उसके सम्मानार्थ अपने तख्त से उतर कर स्वागत के लिए दरवाजे तक आया। जाफर ने पूछा, नूरुद्दीन का क्या हाल है? उसे मरवा तो नहीं डाला? अगर वह जिंदा है तो उसे तुरंत मेरे सामने लाओ। नूरुद्दीन उसी तरह बँधा-बँधाया लाया गया। जाफर ने उसकी रस्सी खुलवाई और खलीफा का फरमान दिखा कर सूएखाकान को उसी रस्सी में बँधवाया।
    जाफर उस दिन तो वहीं ठहरा। दूसरे दिन नूरुद्दीन, जुबैनी और बंदी अवस्था में सूएखाकान को ले कर बगदाद की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचने पर उसने और जुबैनी ने खलीफा से सारी कहानी कही। खलीफा ने कहा, नूरुद्दीन, तुम पर भगवान की असीम कृपा है। जाफर को पहुँचने में थोड़ी भी देर हो जाती तो तुम मारे जाते। अब तुम अपने इस पुराने दुश्मन को अपने हाथ से मारो।

    नूरुद्दीन ने खलीफा के सामने की भूमि को चूम कर कहा, सरकार, इसमें संदेह नहीं कि यह मेरा पुराना शत्रु है किंतु यह इतना बड़ा पापी है कि मैं इसके खून से अपने हाथ रँगना नहीं चाहता। आप मुझे इस बारे में माफी दें। खलीफा ने मुस्कुरा कर कहा, तुम सचमुच बड़े सुसंस्कृत आदमी हो। नहीं चाहते तो इसे न मारो। यह कह कर उसने जल्लाद को इशारा किया और जल्लाद ने तुरंत ही सूएखाकान का सिर उसके धड़ से अलग कर दिया। नूरुद्दीन को बसरा का हाकिम बनाने की बात पर वह बोला, सरकार, आप की बड़ी कृपा है किंतु मैं उस मनहूस शहर में नहीं जाना चाहता। मुझे अपने चरणों ही में रहने की अनुमति दीजिए।

    खलीफा ने उसकी बात मान ली। उसे एक बड़ी जागीर और विशाल भवन दे कर अपना दरबारी बना लिया और हुस्न अफरोज को उसे दे दिया। खलीफा जुबैनी से भी नाराज था कि उसने पहली आज्ञा क्यों नहीं मानी। किंतु जाफर ने उसकी सिफारिश की कि इसी ने अंत समय में नूरुद्दीन की हत्या रुकवाई। अतएव खलीफा ने उसका पद उसे वापस दे दिया।

    दुनियाजाद ने कहा, बहन, बहुत ही बढ़िया कहानी कही। तुम्हें तो बहुत अच्छी कहानियाँ आती हैं। कोई और कहानी कहो ना। बादशाह शहरयार ने भी अपने मौन द्वारा दुनियाजाद की बात का समर्थन किया और शहजाद ने अगली कहानी आरंभ कर दी।

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